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Verse 49
If all characteristics of an entity are indescribable then do not make these a subject of articulation:
सर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः । संवृतिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ॥४९॥
सामान्यार्थ - (क्षणिकैकान्त-वादी बौद्धों के अनुसार) यदि यह कहा जाए कि सर्व धर्म अवक्तव्य हैं तो उनका कथन (धर्म-देशना आदि के लिए) क्यों किया जाता है? यदि उनका कथन संवृति-रूप (केवल व्यवहार के लिए) है तो परमार्थ से विपरीत होने के कारण वह मिथ्या ही है।
If all characteristics of an entity are indescribable (as proclaimed by the Buddhists) then why make these a subject of articulation (in discourses, to corroborate and contradict viewpoints)? If it be accepted that this kind of articulation is fictional (samurti) - mere usage - then it is opposed to reality.
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