________________
Verse 59
Three characters of existence - origination, destruction and permanence - explained through an example:
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥५९॥
सामान्यार्थ - (सुवर्ण-घट को सुवर्ण-मुकुट में परिवर्तित करने की स्थिति में-) सुवर्ण के घट का, सुवर्ण के मुकुट का और केवल सुवर्ण का इच्छुक मनुष्य क्रमशः सुवर्ण-घट का नाश होने पर शोक को, सुवर्ण-मुकुट के उत्पन्न होने पर हर्ष को, और दोनों ही अवस्थाओं में सुवर्ण की स्थिति होने से शोक
और हर्ष से रहित माध्यस्थ्य-भाव को प्राप्त होता है। और यह सब सहेतुक होता है। (बिना हेतु के उन घटार्थी, मुकुटार्थी तथा सुवर्णार्थी के शोकादि की स्थिति नहीं बनती है।)
(When a diadem is produced out of a gold jar -) The one desirous of the gold jar gets to grief on its destruction; the one desirous of the gold diadem gets to happiness on its origination; and the one desirous of gold remains indifferent, as gold remains integral to both – the jar as well as the diadem. This also establishes the fact that different characters of existence (origination, destruction and permanence) are the causes of different responses.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
. . . 101