Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10 Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy View full book textPage 7
________________ सम्पादकीय 'अपभ्रंश' साहित्यिक भाषा के गौरवशाली पद पर छठी शताब्दी में आसीन हुई। इससे पूर्व भरत के नाट्य शास्त्र (द्वितीय ई. शती), विमलसूरि के पउमचरिय (3 ई. श. ) में पादलिप्तसूरि के तरंगवइकहा आदि में अपभ्रंश के शब्दों का कथंचित् व्यवहार पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है अपभ्रंश में प्रथम शती से रचनाएँ होती रही हैं। महत्त्वपूर्ण साहित्य 8वीं शती से 13-14वीं शती तक रचा गया। इसी कारण अपभ्रंश के 9वीं से 13वीं शताब्दी तक के युग को डॉ. हरिवंश कोछड़ ने 'समृद्ध युग' एवं डॉ. राजनारायण पाण्डेय ने 'स्वर्णयुग' माना है। अपभ्रंश की अन्तिम रचना है भगवतीदास रचित 'मृगांकलेखाचरित' ( 16वीं शती) ।" 44 4 " अपभ्रंश की विपुलता का ज्ञान डॉ. नामवरसिंह के इस कथन से पुष्ट होता है - "यदि एक ओर इसमें जैन मुनियों के चिन्तन का चिन्तामणि है तो दूसरी ओर बौद्ध सिद्धों की सहज साधना की सिद्धि भी है। यदि एक और धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोकजीवन से उत्पन्न होनेवाले ऐहिक रस का रागरंजित अनुकथन है। यदि यह साहित्य नाना शलाका पुरुषों के उदात्त जीवन-चरित्त से सम्पन्न है तो सामान्य वणिक-पुत्रों के दुःख-सुख की कहानी से भी परिपूर्ण है। तीर्थंकरों की भावोच्छवसित स्तुतियों, अनुभव-भरी सूक्तियों, रहस्यमयी अनुभूतियों, वैभव-विलास की झाँकियों आदि के साथ ही उन्मुक्त वम्य-जीवन की शौर्यस्नेहसिक्त गाथाओं के विविध चित्रों से अपभ्रंश साहित्य की विशाल चित्रशाला सुशोभित है । स्वयंभू जैसे महाकवि के हाथों से इसका बीजारोपण हुआ, पुष्पदंत, धनपाल, हरिभद्र, जोइन्दु, रामसिंह, देवसेन, कनकामर, हेमचन्द्र, सोमप्रभ, जिनप्रभ, जिनदत्त, जिनपद्म, विनयचन्द्र, राजशेखर, शालिभद्र अब्दुलरहमान, सरह और कण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया और अन्तिम दिनों में भी इस साहित्य को यश: कीर्ति और रइधू जैसे सर्वतोमुखी प्रतिभावाले महाकवियों का सम्बल प्राप्त हुआ । " 'रामकथा' विश्व वाङ्मय में भारतीय संस्कृति, धर्म-साधना तथा काव्यचेतना की सशक्त प्रतिनिधि है । "" 'रामकथा' हिन्दू धर्म-ग्रन्थों तथा हिन्दी साहित्य में ही काव्य-सृजन का विषय नहीं बनी, इसे जैनों तथा बौद्धों ने भी अपना काव्य-विषय बनाया। पौराणिक चरित्रों में राम तथा कृष्ण का चरित्र मुख्य था । इन धार्मिक लोकनायकों को आधार बनाकर जैनाचार्यों ने पौराणिक चरितकाव्यों की रचना की। जैनों ने इन लोकनायकों को जैनधर्म के आदर्शों के अनुसार प्रतिष्ठित किया। " "स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा की अमूल्य निधि है जिसका प्रभाव परवर्ती रामभक्त रचनाकारों पर भी स्वीकारा जाता है। हिन्दी रामकाव्य परम्परा के सर्वप्रमुख मर्मज्ञ कवि तुलसीदास पर भी यह प्रभाव परिलक्षित होता है। तुलसी ने अपनी रामकथा के प्रेरणास्त्रोतोंPage Navigation
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