Book Title: Anuyogdwar Sutram Uttararddh Author(s): Atmaramji Maharaj Publisher: Murarilalji Charndasji Jain View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] का एक 'प्रस्थ'-'पाथा' होता है (चतारि पन्था आढगा ) चार पाथोंका एक 'आढक' होता है और ( चत्तारि आढगाई दोणी ) चार आढक की एक 'द्रोणो' होती है ( सटिभादगाई जहन्नए कुभे ) साठ आढक का एक 'जघन्य कुभ होता है और (असीए पाटगाई मज्झिमए कुभे) अस्सी आढकों का एक 'मध्यम कुभ' होता है (पाढगसयं उकोसए कुभे ) और सौ आढकों का एक 'उत्कृष्ट कुंभ' होता है (अट्टयपाढयसइए वाद) आठ सौ श्राढकों का एक 'वोह' होता है ( एएणं धत्रमाणामाणेणं किं पउयणं ? ) इस धान्यमान प्रमाण के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? (एएणं धनप्पमाणेणं ) इस धान्यमान प्रमाण के द्वारा (मुत्तोलि मुख) मुक्तोली मुख (इंदुर) इंदुर (अनिन्द) आलिंद (अपपार ) अपचार ( संसियाणं ) इनके आश्रित (धन्नाणं ) धान्यों का (धरणमाणप्पमाण ) धान्य मान प्रमाण की (निवत्तिलक्षणं भवर) निर्वृत्ति लक्षण होती है अर्थात् उक्त प्रकार से धान्यों के परिज्ञान की सिद्धि उत्पन्न होती है । ( से तं धनमाणप्पमाणे ) वही 'धान्य मान प्रमाण' है। भावार्थ-जिसके द्वारा वस्तुओका प्रमाण किया जाय उसको 'प्रमाण' कहते हैं । वह चार प्रकार का है। जैसे-द्रव्य प्रमाण १, क्षेत्र प्रमाण २, काल प्रमाण ३, भाव प्रमाण ४। द्रव्य प्रमाण दो प्रकार का है--एक प्रदेशनिष्पन्न, द्वितीय विभागनिष्पन्न । एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कंध पर्यन्त सर्व प्रदेशनिष्पन्न होता है। विभागनिष्पन्न पांच प्रकार का है। जैसे कि--मान प्रमाण १, उन्मान प्रमाण २, अवमान प्रमाण ३, गणित प्रमाण ४, प्रतिमान प्रमाण ५ । मान प्रमाण दो प्रकार का है। जैसे कि-धान्यमान प्रमाण और रसमान प्रमाण । धान्यमान प्रमाण के उदाहरण निम्न प्रकार हैं:-दो असृतियों की (दो हथेलियों की) एक प्रसृति' होती है । संपुटाअलि नावाकार दो प्रमृतियों की एक 'सेतिका' होती है। चार सेतियों का एक 'कुड़व', चार कुड़वों का एक पाथा' (प्रस्थ ) होता है। और चार पाथों का एक 'पाढक' और चार आढकों की एक 'द्रोणी' होती है । साठ पाढकोंका एक 'जघन्य कुंभ' होता है। अस्सी प्राढकों का एक 'मध्यम कुभ' और सौ श्राढकों का एक 'उत्कृष्ट कुंभ' होता है और आठसौ आढकों की एक 'वाह' होती है। ये सब प्रमाण मगध देश की अपेक्षा से कहा गया है । इस का प्रयोजन केवल इतना ही है कि जो धान्यों की कोठी, जिसका मुख ऊपर विस्तीर्ण नहीं होता, मध्य विस्तीर्ण होता है अथवा वंशमय पात्र अथवा दीर्घ कोटी इत्यादि स्थानों में उक्त प्रमाणों से धान्यों का प्रमाण किया जाता है। फिर उस के शान की निष्पत्ति होती है । इसे ही धान्यमान प्रमाण कहते हैं । For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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