Book Title: Anusandhan 2015 12 SrNo 68
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 9
________________ डिसेम्बर - २०१५ दोहा : परमपुरूष परमेसिता, परमानंदनिधांन; पुरसादाणी पासजिन, वंदु परमप्रधान. १ चौपई : कल्पवृक्ष-त्रिभुवन-जयवंत!, जय धन्वंतरि-वैद्य! महंत!; जय त्रिभुवन-मंगल-भण्डार!, दुरित-महागज-केसरि! सार! २ त्रिभुवन-जन-अविलंघित-आण!, तीन-लोक-नायक! सुविहाण!; थंभणपुरमंडणश्रीपास!, करियै सुखसंप्रति(पत्ति) प्रकास. ३ द्वारगाथा-युग्मम्] तुम्ह ध्यांने लहै पुत्र-कलत्र, मणि-कनकादिक-पूरित-वित्त; भोगवे राज वरै सुख-मौक्ष, कलपवृक्ष! प्रभु! कर मुझ सौख्य. ४ दुष्ट-कष्ट-ज्वर-पीडित-लोक, क्षीणचक्षु-क्षय-सूल-शशौक; तुम ध्यांन-रसायण हुई नीरोग, जिन-धन्नंतरि! हर मुझ रोग. ५ विद्या-जोतिष-मंत्र-सुसिद्धि, तुम नामें हुइ आठे सिद्धि; असुचि-पुरुष भी हुइ सुचि-घोष, तुम हौ प्रभु! कल्याण-सुकोस. ६ दुष्ट किए मंत्रादि हरै, चर-थिर-विष-रिपु-ग्रह संहरै; करिय दया दुक्खित निस्तारि, दुरित हरो प्रभु! दुरित-गजारि!. ७ चोर-अगनि-जल-थलचार, पशु-योगी-योगिन-शुरचार; तुम्ह आणां थंभै भयदांन, जय प्रभु! त्रिजग-अलंघित-आंन!. ८ प्रभुसैं चाहत अर्थ प्रशस्त, अनरथ सेती होत जु नस्त; भक्तिवंत-रोमांचित-देह, सुर-नरवर-किन्नर गुनगेह. ९ सेवै जसु पद-पंकज सार, कलह-पंक प्रक्षालनहार; सो त्रिभुवन-नायक-श्रीपास, मुझ रिपुमर्दन करो उल्लास. १० [युग्मम्] जय योगी-मन-कमल-सुभुंग!, भय-पंजर-कुंजर! उत्तंग; त्रिभुवन-जन-आनंदन-चंद!, जय प्रभु! तीन-भुवन-दिनइंद! ११ जय सुमति-धरनी-जलधार!, जग-जंतु-पितामह! सार!; थंभनपुरमंडन-श्रीपास!, नाथभाव कर मुझ गुनवास! १२ __ [द्वारगाथा-युग्मम्] मोक्षादि कहें ते बहुवान, अवरन सून्य कहत विद्वांन; बहु दर्शनि ध्यावै तुम्ह रंग, कर सुखवृद्धि योगि-मन-भृग! १३

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