Book Title: Anusandhan 2015 12 SrNo 68
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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डिसेम्बर
अशुद्ध होय तोपण भेटलो रूढ थई जाय के काळक्रमे ओना सिवाय बीजा पाठनी कल्पना पण कोइने नथी आवती. टीका धरावती प्रतोमां तो ये पाठ होय ज, पण टीका वगरनी ओकला मूळनी केटलीक प्रतोमां पण अ ज पाठ प्रवेशी जाय छे. आ शक्यताने ध्यानमा राखीने अमे अध्ययन दरमियान योगबिन्दु - मूळनी पण प्राचीन प्रतो साथे राखी हती. आ प्रतोओ ओवा घणा पाठो पूरा पाड्या के जे टीकाकारे स्वीकारेला पाठ करतां वधु सङ्गत लाग्या. जेम के श्लोक २०७नी पहेली पङ्क्ति आम छे -
“प्रकृतेरा यतश्चैव नाऽप्रवृत्त्यादिधर्मताम् ।”
आनी टीका आम छे - प्रकृतेः- कर्मसंज्ञितायाः आ- अर्वाक् यतश्चैवयत एव च हेतो: न- नैव अप्रवृत्त्यादिधर्मताम्- अप्रवृत्तिर्निवृत्ताधिकारित्वं .... अहीं अमने मूंझवतो प्रश्न ओ हतो के आ - अर्वाक्नो कोनी साथे अन्वय करवो ? जो ओनो अन्वय अप्रवृत्त्यादिधर्मताम्नी साथे करवानो होय तो त्यां नियमानुसार पञ्चमी केम नथी ? वळी आवो अन्वय करीने 'प्रकृतिना अप्रवृत्तिधर्मथी पहेलां' आवो अर्थ करीओ तो आवा अर्थना सूचक शब्दो 'तथा विहाय' बीजी पङ्क्तिमां आवे छे तेनुं शुं काम ? विचार करतां जणायुं के अहीं बीजो ज कोई पाठ होवो जोईओ. अने योगबिन्दु - मूळनी प्रत जोतां प्रकृतेरात्मनश्चैव आवो साचो पाठ मळी आव्यो. आनो अर्थ से छे के प्रकृति अने आत्मा अ बन्नेमां ज्यां सुधी अप्रवृत्ति - अन्याधिकारनिवृत्ति वगेरे धर्मो न प्रगटे त्यां सुधी सम्यक् चिन्तन नथी ज थई शकतुं. आ अर्थ प्रकरण साथे तद्दन सङ्गत थाय छे. आवा ज केटलाक योगबिन्दु - मूळनी प्रतमांथी मळेला पाठ
-
श्लोक
७
१४१
२५१
२५२
२०९
४८६
२०१५
टीकासम्मत पाठ
सर्वं न मुख्यमुपपद्यते
मलनायैव
०बन्धकस्यैवं
०नीतितस्त्वेव
न्यायात्सिद्धिर्नो हेतुभेदतः सम्बन्धश्चित्र०
शुद्ध मूळ पाठ
सर्वजनुषामुपपत्तित: मलमय्येव ०बन्धकस्यैव ० नीतितस्त्वेष
३५
न्याय्या सिद्धिर्नो हेत्वभेदतः
स चित्रश्चित्र०

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