Book Title: Anusandhan 2015 12 SrNo 68
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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डिसेम्बर - २०१५
३१
अत्राप्येतद् विचित्रायाः प्रकृतेर्युज्यते परम् । इत्थमावर्तभेदेन यदि सम्यग् निरूप्यते ॥
आ श्लोक गोपेन्द्रना मतनी साथे स्वमतनो संवादसूचक होवा छतां टीकाकारे अनी जुदी ज रीते व्याख्या करी छे -
___ 'अत्राप्युभयोस्तत्स्वभावत्वे, किं पुनस्तदभावे न घटते' इत्यपिशब्दार्थः । एतद्- निवृत्ताधिकारत्वं विचित्रायास्तत्तत्सामग्रीबलेन नानारूपायाः प्रकृतेःकर्मरूपायाः युज्यते परं- केवलम् । इत्थमुक्तप्रकारेण आवर्तभेदेन- चरमावर्तरूपेण यदि- चेत् सम्यग्- यथावत् निरूप्यते- विमृश्यत इति ॥'
वास्तवमां आ श्लोक गोपेन्द्रमत अने स्वमतनो समन्वयसूचक होवाथी ओनी टीका आम थवी जोईओ ओम लागे छे -
अत्रापि- जैनमतेऽपि एतद्- निवृत्ताधिकारत्वादि सर्वं युज्यते एव। कुतः? विचित्रायाः- चित्ररूपायाः प्रकृतेः- कर्मप्रकृतेः । यदुक्तं योगशतकटीकायामेतदुद्धरणसम्बन्धे – 'न च प्रकृति-कर्मप्रकृत्योः कश्चिद् भेदोऽन्यत्राभिधानभेदात्' । परं- किन्तु, इत्थं- दर्शितप्रकारेण 'तस्मादचरमावर्तेष्वि'त्यादिना, आवर्तभेदेन- चरमाचरमावर्तात्मकेन, यदि- चेत्, सम्यग्- यथावत् निरूप्यतेविमृश्यत इति ।'
मतलब के गोपेन्द्रना मते कहेवायेली तमाम वातो जो चरम-अचरम आवर्तनी अपेक्षाओ विचारीओ तो जैनमतमां पण सङ्गत थाय ज छे. केमके योगदर्शननी प्रकृति अने जैनदर्शननी कर्मप्रकृति वच्चे नाम सिवाय झाझो तफावत नथी.
उपरना उदाहरणथी जणाशे के टीका- वांचन केटली सावधानीथी करवू पडे तेम छे. आवां ज थोडांक अन्य स्थानो जोईओ -
• श्लोक २२-२९मां योगमां गोचर, स्वरूप, फळ वगेरेनी शुद्धि शा माटे चकासवी जोई तेनी चर्चा छे. तेमां २२मा श्लोकमां ओम जणाव्युं छे के योग तरीके विवक्षित क्रिया जो लोक अने शास्त्रथी विरुद्ध होय तो ते योग नथी गणाती. केमके ओवा फक्त श्रद्धाथी ज स्वीकार्य योगने विद्वानो मान्य नथी करता. त्यारबाद २३मो श्लोक आम छे -

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