Book Title: Anusandhan 2015 12 SrNo 68
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 38
________________ ३२ अनुसन्धान-६८ वचनादस्य संसिद्धिरेतदप्येवमेव हि । दृष्टेष्टाबाधितं तस्मादेतन्मृग्यं हितैषिणा ॥ अमां जे 'एतदप्येवमेव हि' शब्दो छे तेनी टीका आम करवामां आवी छे – 'यदि नामैवं ततः किमित्याह – एतदपि वचनं, किं पुनर्योग इत्यपिशब्दार्थः । एवमेव हि- योगवदेव परिणामिन्येवात्मनि घटते, भाषकपरिणामान्तरसम्भवेन वचनप्रवृत्तेरुपपद्यमानत्वात् ।' खरेखर तो अत्रे आत्माना परिणामित्व वगेरेनो कोई सन्दर्भ ज नथी. वळी, वचन ओ भाषकना परिणामरूप होय के न होय, आत्मा परिणामी होय के न होय - अनाथी दृष्ट अने इष्टथी अबाधित वचननी गवेषणा शी रीते जरूरी बने ? माटे आ शब्दोनी टीका आ रीते करवी योग्य जणाय छे - एतदपि- वचनमपि, एवमेव हि- लोकशास्त्रयोरुभयोरविरोधेनैव शुद्धं भवति; अन्यथा श्रद्धामात्रैकगम्यं सत् तद् विपश्चितामिष्टं न भवति (-पूर्व श्लोकनो सन्दर्भ अत्रे पकडवानो छे.) तस्माद् दृष्टेष्टाभ्यामबाधितमेव तद् मृग्यं भवति । जेम योग, लोक अने शास्त्रथी अविरुद्ध होवो जोईओ, तेम ते योगर्नु प्रतिपादक वचन पण लोक-शास्त्र उभयथी अविरुद्ध होवू जोईओ अQ अत्रे तात्पर्य समजाय छे. • लोकरंजन माटे थती धर्मक्रिया लोकपक्ति कहेवाय छे. आवी क्रिया सामान्यतः कीति, धन वगेरेनी स्पृहाथी थाय छे. अने तेथी ज महान एवा धर्मनी अवहेलनामा निमित्त बननारी ते क्रिया अतिशय निन्द्य गणाय छे. आवी क्रिया 'विषानुष्ठान' कहेवाय छे, केमके ओनो विपाक दारुण होय छे. हवे जे जीव धर्मक्रिया करती वखते अनाभोगथी वर्ते छे, मतलब के जेनुं चित्त प्रवर्तमान क्रियाने बदले बीजा विचारमा छे, तेवा जीवनी धर्मक्रिया 'सम्मूर्छनज क्रिया' गणाय छे. केम के ते जीव ते क्रियामां सम्मूर्छनज- असंज्ञी जीवनी जेम प्रवर्ते छे. हवे आ लोकपक्तिवाळा जीवनी अने अनाभोगवाळा जीवनी - बन्नेनी धर्मक्रिया जोके अशुद्ध ज छे, तोपण लोकपक्तिवाळा जीवनी क्रिया, अनाभोगक्रियानी सरखामणीमां वधु निन्द्य छे. केम के तेमां धर्मनी हीलना छे. आ वात योगबिन्दु

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