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अनुसन्धान-६८
प्रत्युत्तररूप वातो छे. आ जवाबो पण आचार्यनी उदार समजण- सुरेख प्रतिबिम्ब पाडी रह्या छे.
पहेलो प्रश्न अवो छे के माहेश्वर धर्मनो उपासक कोई माणस (मैश्रीमाहेश्री-माहेश्वरी),, टाढ-ठंडीना दिवसोमां, मोक्ष मेळववा माटे, 'महीसागर' (मही नदी)मां स्नान करे; अथवा कोई म्लेच्छ-मुस्लिम व्यक्ति, ठंडीना समयमां ज, केवळ मोक्ष पामवाना लक्ष्यथी ज, नमाज पढे; तो ते बे व्यक्तिओने जे पण कर्मनिर्जरा थाय ते 'सकामनिर्जरा' कहेवाय के 'अकामनिर्जरा' गणाय ??
आना जवाबमां आचार्ये लख्यु के, शास्त्रानुसारे, सम्यग्दृष्टि आत्माने जे निर्जरा थाय तेनी तुलनामां मिथ्यात्वीने ओछी निर्जरा थाय.
__ आ जवाबमां बे मुद्दा फलित थाय छे : (१) महीनुं स्नान के नमाज - ओ बन्ने जैन धर्मनी दृष्टिो सावद्य-सपाप प्रवृत्ति होवा छतां, ते करवा पाछळनुं लक्ष्य के आशय 'मोक्ष' होवाथी, ते करवाथी पण निर्जरा थई शके छे; (२) ते निर्जराने आचार्य 'अकामनिर्जरा'ना नामे नथी ओळखावता, फक्त 'निर्जरा' शब्द प्रयोजे छे, अने तेमां पण सम्यक्त्वी साथे तुलना करीने ते शब्द प्रयोजे छे.
____ शास्त्रमति धरावता जीवो समजी शकशे के आ जवाबमां अक ज्ञानी पुरुषनी दृष्टि केटली विशाळ अने समुदार बनती अनुभवाय छे ! अन्तर अनाग्रहभावथी अने नीतर्या विवेकथी महेकतुं होय, शास्त्रनां मर्मो चित्तमां परिणम्यां होय, त्यारे ज आवा जवाबो ऊगे, आपी शकाय. अलबत्त, आवो जवाब बीजुं कोई पण आपी शके, पण तेनी पासे ते माटेनो अधिकार न होय; अने अधिकार वगर अपाता जवाब मूल्य न होय.
___आ पत्रमा बीजो प्रश्न जरा साम्प्रदायिक छे, गच्छवादने लगतो छे. अमां पूछायुं के तपगच्छना आचार्य पासे, अन्य पक्ष (गच्छ)ना श्रावको, पोताना देरासरनी प्रतिष्ठा करावे तो, ते श्रावकने संसार, परिभ्रमण वधे के ओर्छ थाय?
(खरेखर अहीं प्रश्न आवो होवो जोईतो हतो : तपगच्छना देरासरनी प्रतिष्ठा बीजा गच्छना आचार्य पासे करावीओ तो ते श्रावकने संसारभ्रमण वधे
१. कर्मक्षयना अने मोक्षना लक्ष्यथी कराती क्रिया थकी जे कर्म खपे, ते सकामनिर्जरा; अने
तेवा लक्ष्य वगर ज यंत्रवत् के देखादेखीथी थती क्रिया थकी जे कर्म खपे, ते अकामनिर्जरा.