Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 18
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 17 व्याप्त हुआ था। इसके फलस्वरूप अरह, अरब, अल्लाह, इरान्, हाज, अराफत्, अफगान, पारस, नेमेस्, रमदिन्, मक्का, रेषफ आदि प्राकृतभाषा में प्रचलित थे, जो भिन्न-भिन्न रूपों में भी प्रचलित हुए थे। इसके अतिरिक्त ग्रीकदेश के कुछ भूगर्भ से आज भी जिनमूर्तियाँ यत्र-तत्र उपलब्ध हो रही हैं। इससे यह दृढ़ता से कह सकते हैं कि जैनधर्म विश्वव्यापी था। उपर्युक्त प्रमाण एवं विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि प्राकृत और जैनधर्म इनके बीच अत्यन्त प्रगाढ सम्बन्ध था. जो आदिनाथ वषभ भगवान से लेकर आज तक भी जनमानस के धडकन के रूप में रूढि से आया हुआ है। जैनधर्म के तीर्थकरों की दिव्यध्वनि भी सर्वार्धमागधी नामक प्राकृत भाषा में थी। यह तथ्य है कि यही भाषा कालान्तर में किचित् परिवर्तित होने पर भी उसने अपना मौलिकरूप नहीं खोया। इसी भाषा से जगत की सभी भाषाएं निर्गमित हुई हैं। इसी बात को वाक्पतिराजा ने गउडवहो महाकाव्य में पुष्ट किया है कि: सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुदं चिय णेति सायराओ चिय जलाइं॥ __ अर्थात् जिस प्रकार सागर का ही पानी बादल बनकर बरसता है। वही बारिस का पानी धरती के कई जगहों पर संकलित होकर विश्व की कावेरी, गंगा, यमुना आदि सभी नदियों के नाम पाकर पुनः सागर में प्रवेश करता है। उसी प्रकार सभी भाषाएँ प्राकृत भाषा से ही निर्गमित होकर विविध प्रादेशिकता के कारण शौरसेनी, मागधी आदि नाम पाकर भी पुनः प्राकृत भाषा में ही विलीन हो जाती हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्राकृत भाषा ही विश्व की मूलभाषा थी, जिसको भारोपीय एवं भारतीय आर्यभाषाओं की मूल या जननी कहने से कोई बाधा उत्पन्न ही नहीं होगी, क्योंकि सभी भाषाओं के साथ किसी न किसी प्रकार का संबद्ध है। एतत्कारण प्राचीन काल में लौकिक प्राकृत भाषा ही विश्व की भाषा थी। पूर्वोक्त गाथा से अधिक स्पष्ट होता है। प्राकृतभाषा आज भी जीवन्त अस्तित्व में है। भविष्य में भी जीवन्त रहती है। यह प्राकृत भाषा अमरभाषा ही है। अर्थात् देवभाषा नहीं।

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