________________
अनेकान्त 6/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 5. ईश्वरवाद की अवधारणायें जैनकर्मसिद्धान्त की परिपोषक नहीं है प्रत्युत उससे विरूद्ध ही ज्ञापित होती है। क्योंकि ईश्वरवाद में ईश्वर को ही सर्वविध सम्पूर्ण कार्यों या क्रियाकलापों का कर्ता या नियन्ता मान लिया गया है। यहाँ वह करने के लिये, नहीं करने के लिये और अन्यथा करने के लिये समर्थ मान लिया गया है (कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं यः समर्थः स ईश्वरः) किन्तु विचार करने पर यह अवधारणा कपोल-कल्पित अर्थात् अहेतुक ही सिद्ध होती है। 6. जैनकर्मसिद्धान्त के अनुसार संसरणशील प्राणियों के जीवन व्यवहार विषयक क्रियाकलापों या कार्यों के होने में कर्म को मात्र निमित्त ही माना गया है। कर्म जीवों की योग्यता के बिना उन्हें संसरण नहीं कराता है और न ही उनके कार्यों या क्रियाकलापों को करता है। 7. ईश्वरवाद में ईश्वर को ही कर्त्ता मानने का पूर्णतया समर्थन है। जिससे ईश्वरवाद को मानने वाले प्राणी कर्तृत्वजन्य अहंकार से ग्रसित देखे जाते हैं। जैनकर्मवाद में ऐसी कोई संभावना नहीं है। 8. ईश्वरवाद में सभी प्राणी परतन्त्र ही ज्ञापित होते हैं। यहां ईश्वर को ही सर्वशक्तिमान बताकर यह द्योतित कर दिया गया है कि प्राणियों का स्वतन्त्रत रहना या परतन्त्र होना ईश्वर के अधीन ही है। जैनकर्मवाद जीव
और कर्मों को परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धों की परिधि में देखता है तथा दोनों की स्वतंत्रता का ही बोध हमें करा देता है। 9. ईश्वरवाद में सभी प्राणी को कर्मों को फल ईश्वर देता है। यद्यपि प्राणियों के अदृष्टानुसार ही वह उन्हें फल देने की प्रक्रिया अपनाता है। जबकि जैनकर्मसिद्धान्त के अनुसार प्राणियों को अपने कर्मों का फल उसके द्वारा ही संचित या बांधे गये कर्मों में निहित सामर्थ्य के निमित्त से स्वयं मिलता है। 10. जैनकर्मसिद्धान्त के अनुसार प्राणी अपनी योग्यता के अनुरूप पुरुषार्थ करके स्वयं ही कर्मबन्धन में पड़ता है और अपने ही मुक्त होने योग्य पुरुषार्थ से मुक्त भी हो सकता है। 11. जैनकर्मसिद्धान्त से यह प्रतिपादित होता है कि जीवों का संसरण होना एवं उन्हें सुख दुःख का परिभोग होनो उनके स्वयं के योग्यतामूलक