Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 75
________________ अनेकान्त 6/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं हो सकता है। योग दर्शन भी जैन दर्शन के समान ही सत्ता को सामान्य विशेषात्मक मानता है। योगसूत्र के समाधिपाद का सूत्र 7 इसकी पुष्टि करता है इसी बात को किंचित् शब्द भेद के साथ विभूतिपाद के सूत्र 44 में भी कहा गया है-सामान्यविशेषसमुदायोत्र द्रव्यम्। मात्र इतना ही नहीं, योगदर्शन में द्रव्य की नित्यता-अनित्यता को उसी रूप में स्वीकार किया गया है, जिस रूप में अनेकान्त दर्शन में। महाभाष्य के पंचमाह्निक में प्रतिपादित है द्रव्यनित्यमाकृतिरनित्या, सुवर्ण कदाचिदाकृत्यायुक्तं पिण्डो भवति पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते आकृतिरन्याचान्याभवति द्रव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमृद्येन द्रव्यमेवावशिष्यते। इस प्रकार हम देखते हैं कि सांख्य और योगदर्शन की पृष्टभूमि में कहीं न कहीं अनेकान्त दृष्टि अनुस्यूत है। वैशेषिक दर्शन में अनेकान्त : वैशेषिक दर्शन में जैन दर्शन के समान ही प्रारम्भ में तीन पदार्थों की कल्पना की गई है, वे द्रव्य, गुण और कर्म, जिन्हें हम जैन दर्शन के द्रव्य, गुण और पर्याय कह सकते हैं। यद्यपि वैशेषिक दर्शन भेदवादी दृष्टि से इन्हें एक दूसरे से स्वतंत्र मानता है फिर भी उसे इनमें आश्रय आश्रयी भाव तो स्वीकार करना ही पड़ा है। ज्ञातव्य है कि जहाँ आश्रय-आश्रयी भाव होता है, वहाँ उनके कथंचित् या सापेक्षिक सम्बन्ध तो मानना ही पड़ता है, उन्हें एक से दूसरे से स्वतंत्र कहें, फिर भी वे असम्बद्ध नहीं है। अनुभूति के स्तर पर द्रव्य से पृथक् गुण और द्रव्य एवं गुण से पृथक् कर्म नहीं होते हैं। यहाँ उनका भेदाभेद है, अनेकान्त है। पुनः वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष नामक दो स्वतंत्र पदार्थ माने गए हैं। पुनः उनमें भी सामान्य के दो भेद किए- परसामान्य और अपरसामान्य। परसामान्य को ही सत्ता भी कहा गया है, वह शुद्ध अस्तित्व है, सामान्य है किन्तु जो अपर सामान्य है वह सामान्य विशेष रूप है। द्रव्य, गुण और कर्म अपरसामान्य है और अपरसामान्य होने से

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