Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 74
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 योगदर्शन में अनेकान्तवाद : जैन दर्शन में द्रव्य और गुण या पर्याय, दूसरे शब्दों में धर्म और धर्मी में एकान्त भेद या एकान्त अभेद को स्वीकार नहीं करके उनमें भेदाभेद स्वीकार करता है और यही उसके अनेकान्तवाद का आधार है। यही दृष्टिकोण हमें योगसूत्र भाष्य में भी मिलता है “न धर्मी त्र्यध्वा धर्मास्तु त्र्यध्वान ते लक्षिताश्व तान्तामवस्था प्राप्नुवन्तो अन्यत्वेन प्रति निर्दिश्यन्ते अवस्थान्तरतो न द्रव्यान्तरतः। यथैक रेखा शत स्थाने शतं दश स्थाने दशैक चैकस्थाने यथाचैकत्वेपि स्त्री माता चोच्यते दुहिता च स्वसा चेति।" योगसूत्र विभूतिपाद 13 के भाष्य को में इसी तथ्य को इस प्रकार भी प्रकट किया गया है- “यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वान्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वम्" इन दोनों सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक ही स्त्री भेद से माता, पुत्री अथवा सास कहलाती है उसी प्रकार एक ही द्रव्य अवस्थान्तर को प्राप्त होकर भी वही रहता है। एक स्वर्णपात्र को तोड़कर जब कोई अन्य वस्तु बनाई जाती है तो उसकी अवस्था बदलती है किन्तु स्वर्ण तो वही रहता है अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा वह वही रहता अर्थात् नहीं बदलता है, किन्तु अवस्था बदलती है। यही सत्ता का नित्यानित्यत्व या भेदाभेद है जो जैन दर्शन में अनेकान्तवाद का आधार है। इस भेदाभेद को आचार्य वाचस्पति मिश्र इसी स्थल की टीका में स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखते हैं"अनुभव एव ही धर्मिणो धर्मादीनां भेदाभेदी व्यवस्थापयन्ति।" मात्र इतना ही नहीं, वाचस्पति मिश्र तो स्पष्ट रूप से एकान्तवाद का निरसन करके अनेकान्तवाद की स्थापना करते हैं। वे लिखते हैं न हयैकान्तिके भेदे धर्मादीनां धर्मिणो, धर्मीरूपवद् धर्मादित्वं नाप्यैकान्तिके भेदे गवाश्ववद् धर्मादित्यं स चानुभवेनेकान्तिकत्वमवस्थापयन्नापि धर्मादिषूपजनापाय धर्मकिष्वपि धर्मिणमेकमनुगमयन् धर्माश्च परस्परतो व्यवर्तयन् प्रत्याममनु भूयत इति। एकान्त का निषेध और अनेकान्त की पृष्टि का योग दर्शन में

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