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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 पदार्थ को उत्पत्ति, विनाश और स्थिति युक्त मानना, अवयवी और अवयव में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष मानना आदि तथ्य इसी बात को पुष्ट करते हैं कि उनके दार्शनिक चिंतन की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं अनेकान्त के तत्त्व उपस्थित रहे हैं।
श्लोकवार्तिक श्लोक 75-80 में तो वे स्वयं अनेकान्त की प्रमाणता सिद्ध करते हैं
वस्त्वनेकत्ववादाच्च न सन्दिग्धा प्रमाणता ।
ज्ञानं संहियते यत्र तत्र न स्यात् प्रमाणता ॥ इहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम् ।
इसी अंश की टीका में पार्थसारथी मिश्र ने भी स्पष्टतः अनेकान्तवाद शब्द का प्रयोग किया है यथा- ये चैकान्तिकं भेदमभेदं वावयविनः समाश्रयन्ते तैरेवायमनेकांतवाद ।
मात्र इतना ही नहीं, उसमें वस्तु को स्व-स्वरूप की अपेक्षा सत् पर स्वरूप की अपेक्षा असत् और उभयरूप से सदसत् रूप माना गया है यथा - सर्वं हि वस्तु स्वरूपतः सद्रूपं पररूपतश्चासद्रूपं यथा घटो घटरूपेण सत् पटरूपेणासत् । अभावप्रकरण टीका
यहाँ तो हमने कुछ ही संदर्भ प्रस्तुत किए हैं यदि भारतीय दर्शनों के मूलग्रंथों और उनकी टीकाओं का सम्यक् परिशीलन किया जाए तो ऐसे अनेक तथ्य परिलक्षित होंगे जो उन दर्शनों की पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकान्त दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। अनेकान्त एक अनुभूत्यात्मक सत्य है उसे नकारा नहीं जा सकता है । अन्तर मात्र उसके प्रस्तुतिकरण की शैली का होता है।
वेदान्तदर्शन में अनेकान्तवाद :
भारतीय दर्शनों में वेदान्त दर्शन वस्तुतः एक दर्शन का नहीं, अपितु दर्शन समूह का वाचक है। ब्रह्मसूत्र को केन्द्र में रखकर जिन दर्शनों का विकास हुआ वे सभी इस वर्ग में समाहित किए जाते हैं। इसके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैत आदि अनेक सम्प्रदाय हैं। नैकस्मिन्न संभवात् (ब्रह्मसूत्र २ / २ / ३३ ) की व्याख्या करते हुए इन सभी दार्शनिकों ने जैनदर्शन के अनेकान्तवाद की समीक्षा की है। मैं यहाँ उनकी समीक्षा