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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
सत्-असत् दोनों नहीं है।
यही बात प्रकारान्तर से विधिमुख शैली में जैनाचार्यों ने भी कही है-यदेवतत्तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकं सदेवसत् तदेवासत्, यदेवनित्यं तदेवानित्यम्। अर्थात् जो तत् रूप है, वही अतत् रूप भी है, जो एक है, वही अनेक भी है, जो सत् है वही असत् भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है। उपरोक्त प्रतिपादनों में निषेधमुख शैली और विधिमुख शैली का अंतर अवश्य है, किन्तु तात्पर्य में इतना अंतर नहीं है जितना समझा जाता है। एकान्तवाद का निरसन दोनों का उद्देश्य है।
शून्यवाद और स्याद्वाद में मौलिक भेद निषेधात्मक और विधानात्मक शैली का है। एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और स्याद्वादी दोनों ही दिखते हैं। किन्तु जहाँ शून्यवादी उस एकान्त के दोष के भय से उसे अस्वीकार कर देता है,वहां अनेकान्तवादी उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस दूषित एकान्त को निर्दोष बनाने का प्रयत्न करता है।
शून्यवाद तत्त्व को चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य कहता है तो स्याद्वाद उसे अनन्तधर्मात्मक कहता है, किन्तु स्मरण रखना होगा कि शून्य और अनन्त का गणित एक ही जैसा है। शून्यवाद जिन्हें परमार्थसत्य और लोकसंवृतिसत्य कहता है उसे जैनदर्शन निश्चय और व्यवहार कहता है तात्पर्य यह है कि अनेकान्तवाद और शून्यवाद की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ समरूपता है। उपसंहार :
प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि समग्र भारतीय दार्शनिक चिंतन की पृष्ठभूमि में अनैकान्तिक दृष्टि रही हुई है चाहे उन्होंने अनेकान्त के सिद्धान्त को उसके सम्यक् परिप्रेक्ष्य में ग्रहण न कर उसकी खुलकर समालोचना की हो। वस्तुतः अनेकान्त एक सिद्धान्त नहीं, एक पद्धति (Methodology) है और फिर चाहे कोई भी दर्शन हो 'बहुआयामी परमतत्त्व' की अभिव्यक्ति के लिए उसे इस पद्धति को स्वीकार करना ही होता है। चाहे हम सत्ता को निरपेक्ष मानें या यह भी मान लें कि उस निरपेक्ष तत्त्व की अनुभूमि तो सम्भव है, किन्तु निरपेक्ष अभिव्यक्ति तो सम्भव नहीं है। निरपेक्ष अनुभूति की अभिव्यक्ति का जब भी भाषा के