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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
नासन्न सन्नसदसत् सदसतोवैधात्। इसका उत्तर टीका में विस्तार से दिया गया है, किन्तु हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में उनके उत्तरपक्ष में प्रस्तुत करेंगे। उनका कहना है कि कार्य-उत्पत्ति पूर्व कारण रूप से सत् है क्योंकि कारण के असत् होने से कोई उत्पत्ति ही नहीं होगी। पुनः कार्य रूप से वह असत् भी है क्योंकि यदि सत् होता है तो फिर उत्पत्ति का क्या अर्थ होता? अत: उत्पत्ति पूर्व कार्य कारण रूप से सत् और कार्य रूप से असत् अर्थात् सत-असत् उभय रूप है। यह बात बुद्धिसिद्ध है (विस्तृत विवेचना के लिए देखें न्यायसूत्र (4/1/48-50) की वैदिक परिप्रसाद स्वामी की टीका। मीमांसा दर्शन में अनेकान्तवाद :
__ जिस प्रकार अनेकान्तवाद के सम्पोषक जैनधर्म में वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक माना है, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन में सत्ता को त्रयात्मक माना है। उसके अनुसार उत्पत्ति और विनाश तो धर्मों के हैं, धर्मी तो नित्य है, वह उन धर्मों की उत्पत्ति और विनाश के भी पूर्व है अर्थात् नित्य है। वस्तुतः जो बात जैन दर्शन में द्रव्य की नित्यता और पर्याय की अनित्यता की अपेक्षा से कही गई है, वही बात धर्मी और धर्म की अपेक्षा से मीमांसा दर्शन में कही गई है, वही बात धर्मी और धर्म की अपेक्षा से मीमांसा दर्शन में कही गई है यहां पर्याय के स्थान पर धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। स्वयं कुमारिल भट्ट मीमांसाश्लोकवार्तिक (21-23) में लिखते
वर्द्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाभ्युत्तरार्थिनः॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्। नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम्॥ न नाशेन बिना शोको नोत्पादेन विना सुखम्।
स्थित्या विना न माध्यथ्यम् तेन सामान्यनित्यता॥ इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिपदी की जो स्थापना जैन दर्शन में है वही बात शब्दान्तर से उत्पत्ति, विनाश और स्थिति के रूप में मीमांसा दर्शन में कही गई है। कुमारिल भट्ट के द्वारा