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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
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हैं। पुनः प्रकृति तो जैन दर्शन के सत् के समान परिणामी नित्य मानी गई हैं अर्थात् उसमें परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील दोनों विरोधी गुणधर्म अपेक्षा भेद से रहे हुए हैं। पुनः त्रिगुण - सत्त्व, रजस् और तमस् परस्पर विराधी है, फिर भी प्रकृति में वे तीनों एक साथ रहते हैं। सांख्य दर्शन का सत्त्वगुण स्थिति का, रजोगुण उत्पाद या क्रियाशीलता का, तमोगुण विनाश या निष्क्रियता का प्रतीक है। अतः मेरी दृष्टि में सांख्य का त्रिगुणात्मकता का सिद्धान्त और जैनदर्शन का उत्पाद-व्यय और ध्रोव्यात्मकता का सिद्धान्त एक दूसरे से अधिक दूर नहीं है। सत्ता की बहु आयामिता और परस्पर विरोधी गुणधर्मों की युगपद् अवस्थिति यही तो अनेकान्त है। द्रव्य की नित्यता और पर्याय की अनित्यता जैन दर्शन के समान सांख्य को भी मान्य है। पुन: प्रकृति और विकृति दोनों परस्पर विरोधी हैं किन्तु सांख्य दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों गुण पाये जाते हैं। सांसारिक पुरुषों की अपेक्षा से वह प्रवृत्यात्मकता और मुक्त पुरुष अपेक्षा से निवृत्यात्मकता देखी जाती है। इसी प्रकार पुरुष में अपेक्षा भेद से भोक्तृत्व और अभोक्तृत्व दोनों गुण देखे जाते हैं, चाहे वह प्रकृति के निमित्त से ही क्यों नही हो । संसार दशा में पुरुष में ज्ञान - अज्ञान, कर्तृत्व-अकृत्व, भोक्तृत्व-अभोक्तृत्व ये विरोधी गुण रहते हैं। सांख्य दर्शन की इस मान्यता का समर्थन महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में अनुगीत के 47वें अध्ययन 7वे श्लोक में मिलता है- उसमें लिखा है
यो विद्वान्सहवासं च विवासं चैवं पश्यति । तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात् परिमुच्यते ॥
अर्थात् जो विद्वान् जड़ और चेतन के भेदाभेद को तथा एकत्व और भेद को देखता है वह दुःख से छूट जाता है। जड़ (शरीर) और चेतन (आत्मा) का यह भेदाभेद तथा एकत्व में अनेकत्व और अनेकत्व में एकत्व की यह दृष्टि अनेकान्तवाद की स्वीकृति के अतिरिक्त क्या हो सकती है? वस्तुतः सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति में आत्यन्तिक भेद माने बिना मुक्ति/ कैवल्य की अवधारणा सिद्ध नही होगी, किन्तु दूसरी ओर उन दोनों में आत्यन्तिक अभेद मानेंगे तो संसार की व्याख्या सम्भव नहीं होगी। संसार की व्याख्या के लिए उनमें आंशिक या सापेक्षिक अभेद