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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
भारतीय दर्शनों में अनेकान्तवाद के तत्त्व : एक ऐतिहासिक विवेचन
- प्रो. सागरमल जैन
अनेकांतवाद को मुख्यतः जैनदर्शन का पर्याय माना जाता है। यह कथन सत्य भी है, क्योंकि अन्य दार्शनिकों ने उसका खण्डन उसके इसी सिद्धान्त के आधार किया जाता है, दूसरी ओर अनेकांतवाद को जैनदर्शन का पर्याय मानना समुचित भी है, किन्तु उसका यह भी अर्थ नही है कि अन्य भारतीय दर्शन भी ऐतिहासिक कालक्रम में विकसित हुए हैं। सबसे प्राचीन वेद हैं, उनके बाद उपनिषदों का क्रम आता है। दर्शनों में सांख्य दर्शन पुराना है, उसके बाद 'योग' का क्रम आता है। इसी प्रकार वैशेषिक दर्शन न्याय की अपेक्षा पुराना है। मीमांसा के बाद वेदान्त का क्रम आता है। सत्ता के सम्बन्ध में अनेकान्तवाद एक अनुभूत सत्य है और अनुभूत सत्य को स्वीकार करना ही होता है। विवाद या मत-वैभिन्य अनुभूति के आधार पर नहीं, उसकी अभिव्यक्ति के आधार पर होता है। अभिव्यक्ति के लिए भाषा का सहारा लेना होता है, किन्तु भाषायी अभिव्यक्ति अपर्ण-सीमित और सापेक्ष होती है। अत: उसमें मतभेद होता है और उन मतभेदों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करने या उन परस्पर विरोधी कथनों के बीच समन्वय लाने के प्रयास में ही अनेकांतवाद का जन्म होता है। वस्तुतः अनेकान्तवाद या अनैकान्तिक दृष्टिकोण का विकास निम्न तीन आधारों पर होता है1. बहु-आयामी वस्तुतत्व सम्बन्ध में एकान्तिक विचारों या कथनों का निषेध। 2. भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं के आधार पर बहुआयामी वस्तुतत्व के सम्बन्ध में प्रस्तुत विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता की स्वीकृति। 3. परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली विचार धाराओं को समन्वित करने का