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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 मूल में है, सत् असत्, उभय, या अनुभय को किसी एक कोटि में आबद्ध करके नहीं कहा जा सकता है दूसरे शब्दों में उसके सम्बन्ध में जो भी कथन किया जा सकेगा वह भाषा की सीमितता के कारण सापेक्ष ही होगा निरपेक्ष नहीं। यही कारण है कि वैदिक ऋषि की उस परमसत्ता या वस्तुतत्व को सत् या असत् नहीं कहना चाहता है, किन्तु प्रकारान्तर से वे उसे सत् भी कहते हैं- यथा- एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं (1/164/46) और असत् भी कहते हैं यथा- देवानां युगे प्रथमेअसतः सदजायत (10/72/3) इससे यही फलित होता है कि वैदिक ऋषि अनेकान्त दृष्टि के ही सम्पोषक रहे हैं। औपनिषदिक साहित्य में अनेकान्तवाद :
न केवल वेदों में, अपितु उपनिषदों में भी अनेकान्तिक दृष्टि के उल्लेख के अनेकों संकेत उपलब्ध हैं। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर परमसत्ता के बहुआयामी होने और उसमें परस्पर विरोधी कहे जाने वाले गुणधर्मों की उपस्थिति के संदर्भ मिलते हैं। जब हम उपनिषदों में अनेकान्तिकदृष्टि के संदर्भो की खोज करते हैं जो उनमें हमें तीन प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं1. अलग-अलग संदर्भो में परस्पर विरोधी विचारधाराओं का प्रस्तुतीकरण। 2. ऐकान्तिक विचारधाराओं का निषेध। 3. परस्पर विरोधी विचारधाराओं के समन्वय का प्रयास।
सृष्टि का मूलसत् या असत् था, इस समस्या के संदर्भ में हमें उपनिषदों में दोनों ही प्रकार की विचारधाराओं के संकेत उपलब्ध होते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् (2.7) में कहा गया है कि प्रारम्भ में असत् ही था उसी से सत् उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार की पुष्टि छान्दोग्योपनिषद् (3/19/1) में भी होती है। उसमें भी कहा गया है कि सर्वप्रथम असत् ही था उसी से सत् हुआ और सत् से सृष्टि हुई। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन दोनों में असत् वादी विचारधारा का प्रतिपादन हुआ, किन्तु इसी के विपरीत उसी छान्दोग्योपनिषद् (6/2/1,3) में यह भी कहा गया कि पहले अकेला सत् था, दूसरा कुछ नहीं था, उसी से यह सृष्टि हुई है। बृहदारण्यकोपनिषद् (1/4/1-4) में भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए