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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
प्रयास। वेदों में प्रस्तुत अनेकान्त दृष्टि :
प्रस्तुत आलेख में हमारा प्रयोजन उक्त अवधारणाओं के आधार पर जैनेतर भारतीय चिंतन में अनैकान्तिक दृष्टिकोण कहां-कहां किसी रूप में उल्लेखित है इसका दिग्दर्शन कराना है।
भारतीय साहित्य में वेद प्राचीनतम है। उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है। ऋग्वेद न केवल परमतत्व के सत् और असत् पक्षों को स्वीकार करता है अपितु इनके मध्य समन्वय भी करता है। ऋग्वेद के नासदीयसूक्त (10/129/1) में परमतत्व के सत् या असत् होने के सम्बन्ध में, न केवल जिज्ञासा प्रस्तुत की गई अपितु ऋषि ने यह भी कह दिया कि परम सत्ता को हम न सत् कह सकते हैं और न असत्। इस प्रकार वस्तुतत्व ही बहु-आयामिता और उसमें अपेक्षा भेद से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले पक्षों की युगपद् उपस्थिति की स्वीकृति हमें वेद काल से ही मिलने लगती है। मात्र इतना ही नहीं, ऋग्वेद का यह कथन- 'एक सद विप्रा बहधा वदन्ति (1/164/46)' इस कथन में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओं की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए उनमें समन्वय करने का प्रयास ही तो है। इस प्रकार हमें अनेकान्तिक दृष्टि के अस्तित्व के प्रमाण ऋग्वेद के काल से ही मिलने लगते हैं। यह बात न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा अनेकान्तिक दार्शनिक दृष्टि की स्वीकृति की सूचक है, अपितु इस सिद्धान्त की त्रैकालिक सत्यता और प्राचीनता की भी सूचक है। चाहे विद्वानों की दृष्टि में सप्तभंगी का विकास एक परवर्ती घटना हो, किन्तु अनेकान्त तो उतना ही पुराना है जितना ऋग्वेद का यह अंश। ऋग्वेदिक ऋषियों के समक्ष सत्ता या परमतत्व के बहु-आयामी होने का पृष्ठ खुला हुआ था और यही कारण है कि वे किसी ऐकान्तिक दृष्टि में आबद्ध होना नहीं चाहते थे। ऋग्वेद के दशम मण्डल का नासदीय सूक्त (10/129/1) इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजों न व्योमं परो यत् सत्य तो यह है है कि उस परमसत्ता को जो समस्त अस्तित्व के