Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 34
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 ज्ञानार्णव में वर्णित स्त्री स्वरूप और उनकी युक्ति-युक्तता ___-डॉ. सतेन्द्र कुमार जैन 'संसरण इति संसारः' उक्ति के अनुसार इस संसार में प्रत्येक जीव विचरण करता है। इनमें वैराग्य के लिए तीन कारणों को छोड़ना आवश्यक है। संसार, शरीर और भोग। इन तीन कारणों से विरक्ति आने पर ही संसार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इन तीन कारणों के अन्तर्गत भोगों के प्रसंग में स्त्री भोगों की विरक्ति के प्रसंग में आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में स्त्रियों के दोषों का कथन किया है। पूज्यवर आचार्य शभचन्द्र जी का आशय स्त्री समूह से विरक्ति का था न कि स्त्रियों की निन्दा से। स्त्रियों के दोषों का कथन करने के प्रमुख आशय तप में श्रेष्ठ, साधवत्ति में रत, साधकों को भविष्य में कभी स्त्री संबंधी राग उत्पन्न न हो तथा स्त्रियों में रत श्रावकों को स्त्रियों के स्वरूप का ज्ञान कराकर उन्हें संसार के कारणों से वैराग्य दिलाना है। आचार्य शिवार्य ने स्त्रियों से विरक्ति के संबंध में कहा है कि- काम विकार से उत्पन्न हुए दोष, स्त्रियों के द्वारा किए गए दोष, शरीर की अशुचिता, वृद्धजनों की सेवा तथा स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न हुए दोष इनके चिन्तन से स्त्रियों में वैराग्य उत्पन्न होता है। स्त्री का स्वरूप स्त्री शब्द की निष्पत्ति स्त्यै + डप् +ङीप् प्रत्यय लगने से हुई है। जिसका अर्थ मादा है। इसी विषय में पंचसंग्रह प्राभृत में कहा है कि छादयति सयं दोसेण जदो छादयति परं पि दोसेण। छादणसीला णियदं तम्हा सा वण्णिा इत्थी ॥ अर्थात् जो दोषों से अपने आपको आच्छादित करे और मधुर संभाषण आदि के द्वारा दूसरों को भी दोष से आच्छादित करें, वह निश्चय से आच्छादन स्वभाववाली स्त्री है। मानो ब्रह्मा ने यमराज की जिह्वा, अग्नि

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