Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 57
________________ 56 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 आदि भी कारक नहीं माने जा सकते हैं। शास्त्रों में मौजूद ऋषि प्ररूपित कर्मवाद, अध्यात्मवाद आदि में निहित हितकारी उपदेश को समझने में सम्प्रदायवाद की संकीर्णता या वर्गवाद की संघर्षशीलता अत्यन्त घातक है। यहाँ मोहाच्छन्न वादों की घातक क्षमता सम्प्रदाय या वर्ग संघर्ष से और भी सघन - सबल हो जाती है। निष्कर्ष यह है कि हम महान् ऋषियों द्वारा निदर्शित कर्मवाद को साम्प्रदायिक होकर समझने की भूल न करें और न ही कर्मवाद की प्रतिपत्तियों से वर्ग संघर्ष को हवा देने का अपराध हम से हो। कर्मवाद से हम यथार्थ जीवन मूल्यों को पहिचानें और अपने परिणामों को संभालने खंगालने का कार्य करें। इसके लिये जरूरी है कि हमारी बुद्धि को अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उपादेयता तथा हिंसा, असत्य, स्तेय (चौर्य), अब्रह्म ( कुशील) सेवन और परिग्रह की हेयता स्वीकार्य हो । हेयोपादेयता की परिधि में रहकर जानने वाला ज्ञान ज्ञेयलुब्ध नहीं होता है जिससे उसके मोहग्रस्त होने की प्रक्रिया मन्द होती हुई बन्द हो सकती है। ऐसा ज्ञान ही किसी वस्तु या तद्विषयक उपदेश को समझने में सक्षम माना जा सकता है। भारतीय चिन्तन धारा में प्रतिष्ठित कर्मवाद को समझना हमें तभी संभव हो सकता है जब हम अपनी बुद्धि को उपर्युक्तानुसार सुयोग्य बनायें। जैन परम्परा में सुगुम्फित कर्मवाद हमारा मार्गदर्शक तभी हो सकता है जब हम तदर्थक जिज्ञासाओं का समाधान खोजना चाहते हों। कर्म क्या है? उनके भेद - प्रभेदों की प्ररूपणा का मूल्य क्या है? उन्हें समझना जरूरी क्यों है? जीवन की विविध समस्यायें, परिणतियाँ या दशायें कर्मवाद से कैसे नियन्त्रित मानीं जायें? उनका प्रभाव कार्मिक परिवेश में कहाँ तक सही है? जीव और कर्मों का परस्पर बंध क्या है और क्यों होता है? जीव कर्मों का परस्पर बंध क्या है और क्यों होता है? जीव कर्मों से बंधते हैं या कर्म जीव को बांधते हैं? किससे किसका सम्बन्ध है और उसका यथार्थ मूल्य क्या है? सांसारिक जीव में कर्मबंधन अपरिहार्य क्या है? क्या यह अपरिहार्यता वस्तु स्वातन्त्र्य की विनाशक मानी जाये? जीव और कर्मों का परस्पर संश्लेषात्मक बंध क्या एकक्षेत्रावगाह

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