________________
अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016
उनके अभिधा अर्थ मात्र के लिए मात्र क्रीतदास अथवा उनके मोहाच्छन व्यास न बनें तथा राग-द्वेषों से प्रेरित होकर उनका अर्थ न करें और न ही उनका प्रचार-प्रसार साम्प्रदायिक उन्माद के धरातल पर करें।
सत्यबोध गर्भित उन उपदेशों का यथार्थ अधिगम हमें विवक्षा संश्लिष्ट शब्दशक्तियों के सदुपयोग से करना चाहिए। एतदर्थ हम अपने बौद्धिक व्यापार को वस्तुमूलक और ईमानदार बनायें तथा जो हम समझते या मानते हैं और जिसे सही सिद्ध करना चाहते हैं उसे ही सही समझाने या प्रमाणित करने का दुस्साहस न करें। आगम, निगम, वेद, पुराण एवं तदुपजीवी वाड्.मय से वस्तु एवं वस्तुव्यवस्था का मूल्यांकन करने में बुद्धि को तार्किक एवं तात्त्विक बनाते जायें। बुद्धि को वास्तविक निकष पर कसें और वस्तुमूलक परिज्ञान में ही उसे व्यस्त रखें काल्पनिकअन्धविश्वासमूलक वादों में नहीं। इस प्रकार के बौद्धिक व्यवसाय से संभव हो सकता है कि हम अपने अध्ययन व्यवसाय में एक ईमानदार चेता एवं निष्पक्ष ज्ञाता या व्याख्याता हैं। ऐसे ही लोगों के लिये श्रुत या श्रुति आधारित किसी भी वाद को सही समझ पाना संभव हो जाता है भले ही वह वाद कर्मवाद हो या अध्यात्मवाद; समाजवाद हो या साम्राज्यवाद। राजनैतिक प्रशासन का कोई वाद हो या आर्थिक-भौतिक प्रबन्धन का कोई वाद: भोगविलासिता की सुविधा-हासिल करने के लिए कोई वाद हो या भोगविलासिता त्यागने के व्यामोह का कोई वाद।
शास्त्रबोध के लिये सतत ईमानदार कोई भी ज्ञाता-व्याख्याता जब किसी सत्यनिष्ठ प्रयोजन की परिधि में रहकर जागतिक सत्य या शास्त्र रहस्य को जानने में लग पाता है तब ही उसे अपनी बुद्धि को हेय, उपादेय एवं ज्ञेय सापेक्ष वस्तु या तथ्य को जानने के पुरुषार्थ में व्यस्त रखने की सफलता मिल सकती है। क्या हेय है? क्या उपादेय है? क्या ज्ञेय मात्र हैयह निर्णय तो बुद्धि के लिये अत्यन्त अपरिहार्य है इसके बिना सही दिशा में कोई भी पुरुषार्थ कर पाना सर्वत्र असंभव ही है तथा असमीचीन या दिशा विहीन पुरुषार्थ कभी भी फलनिष्पत्ति का द्योतक नहीं होता है। अतः फलनिष्पत्ति के लिये कारक हमारी सम्यक् बुद्धि ही है कोई सम्प्रदाय नहीं। एतदर्थ वाद, विवाद, संवाद, परिवाद, प्रतिवाद, अतिवाद