________________
51
अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 ने अपने प्रति उद्दण्डता करने वालों के प्रति हृदय में कलुषता की जगह करुणा की अमृत-धारा प्रवाहित की।
एक और प्रसंग पर दृष्टिपात करें तो प्रश्न उपस्थित होता है कि ये गिरनार के शिलालेख सम्राट् के हृदय परिवर्तन के पूर्व के हैं या पश्चात्वर्ती? तो कहना होगा कि तथ्य जो भी हो यदि उसको गौण करके चिन्तन करें तो यदि शिलालेख पूर्ववर्ती हैं तो हृदय परिवर्तन के पश्चात् क्या शेष करने के लिए रहा होगा? क्योंकि सर्वधर्म समभाव, प्राणी मात्र की चिन्ता का इनमें अन्तर्भाव हो जाता है और यदि हृदय परिवर्तन के पश्चात् की चर्चा करें तो यह कहा जा सकता है कि जो इन मूल्यों का निर्धारण सम्राट अशोक ने स्वशासित क्षेत्र में किया होगा उसका विस्तार हृदय-परिवर्तन के पश्चात् समूचे शासित, अर्द्धशासित तथा अशासित क्षेत्रों में किया होगा।
__ चिन्तन की पराकाष्ठा का एक और उदाहरण देखना हो तो वे पंक्तियाँ आत्मा को झकझोरती हैं जब सम्राट अशोक उद्घोष करते हैं मैं चाहे भोजन करता हूँ, गर्भागार (शयनगृह) में रहूँ, व्रज अर्थात् पशु शाला में रहँ, विनती अर्थात पालकी पर रहँ या उद्यान में रहँ: जनता के कार्य
की सूचना मुझे मिलती रहनी चाहिए।' इसी की स्पष्टता में शिलालेखों में लिखा है कि सर्वलोक-हित मेरा कर्तव्य है; यह मेरा मत है।'
सप्तम शिलालेख समस्त सम्प्रदायों के एक ही स्थल पर जीवन-निर्वाह का संकेत करता है और अधिक क्या कहें विहार यात्रा का भी कथञ्चित् समर्थन है; किन्तु वह भरी तब जब विहार यात्रा आमोद-प्रमोद से हटकर धर्मयात्रा में परिवर्तित हुई जिसके अन्तर्गत सम्राट अशोक बोधगया (महात्मा बुद्ध का संबोधि स्थल) गये। युद्ध भेरी की परिभाषा धर्म भेरी में तथा सेवा जगत्-सेवा में बदल गई।
सम्पूर्ण शिलालेखों को देखें तो ये दार्शनिक विचारधाराओं का अर्णव है जिसमें जिस विधा का व्यक्ति अध्ययन करता है उसे अपना दृष्टिकोण दिखता है जो कि अशोक की वैचारिक श्रेष्ठता को द्योतित करता है।