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अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 आग में भी नहीं जल सकी तथा सर्प व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके। कितनी ही स्त्रियाँ सर्व गुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ चरम शरीरी पुरुषों को जन्म देने वाली माताएँ हुई है। उपसंहार
सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं और वह मोह का उदय स्त्री पुरुषों के समान रूप से होता है। अतः ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया है वह स्त्री सामान्य की दृष्टि से किया है। शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे दोष कैसे हो सकते हैं। काम रूपी रोग मात्र स्त्री पुरुष में ही नहीं, अपितु संसार के सभी मनुष्य, पशु और देवों में भी पाया जाता है। जिसमें देवों में तथा पशुओं में इसका उद्वेग रोक पाना असंभव सा है, परन्तु मनुष्यों में कुछ ही मनुष्य ऐसे होते हैं, जो इस रोग पर प्रतिबन्ध लगाकर शीलरूपी धर्म का पालन करते हैं। वे धन्य हैं। यहाँ स्त्री की युक्ति-युक्तता पर आचार्य शुभचन्द्र ने वर्णन किया है, जिसमें मोक्षमार्ग में बाधक कामी स्त्रियों से दूर रहने का तथा सदाचारिणी स्त्रियों का सम्मान करने का निर्देश दिया है, परन्तु सदाचारिणी स्त्रियों से भी आवश्यक दूरी बनानी चाहिए, क्योंकि स्त्रीगत गुण तथा दोष प्रत्येक स्त्री में विद्यमान रहते हैं। चाहे वह शीलवती हो अथवा दराचारिणी हो। अतः स्त्रियों में राग द:ख का कारण एवं शील में अतिचार का कारण है। इस कारण इससे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। संदर्भ सूची1. भगवती आराधना, आचार्य शिवार्य, गाथा-876, पृष्ठ-515, जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
सोलापुर, महाराष्ट्र, 2004 2. संस्कृत हिन्दी शब्द कोश, शिवराम आप्टे, पृष्ठ-1138, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, 1987 3. पंचसंग्रह प्राभृत, आचार्य कुन्दकुन्द, 1/105, धा. 1/1,1,101/340/9 4. ज्ञानार्णव, आचार्य शुभचन्द्र, अध्याय 12, श्लोक 20, 51, पृष्ठ 228, 236, जैन
संस्कृती संरक्षक संघ, सोलापुर, महाराष्ट्र, 1998 5. भगवती आराधना, गाथा-971-975, पृष्ठ-537-538, 6. ज्ञानार्णव, अधिकार 11,श्लोक 22, पृष्ठ 215 7. ज्ञानार्णव, अधिकार 13,श्लोक 2, पृष्ठ 240 8. ज्ञानार्णव, अधिकार 12,श्लोक 5,16,3,6, पृष्ठ 224 9. ज्ञानार्णव, अधिकार 12,श्लोक 22, पृष्ठ 228