Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 28
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 के मुनि के होता है। है उसके समस्त ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय के नष्ट हो जाने से निर्विघ्न विकसित आत्मशरणवान् स्वयमेव होता हुआ सब पदार्थों को जान लेता है। भाव यह है कि सातवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग प्रारम्भ हो जाता है। फिर प्रत्येक गुणस्थान में उसकी शक्ति बढ़ती चली जाती है जिस दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म प्रायः नष्ट जाता है। जब वह शुद्धोपयोग पूर्ण क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है तो उस शुद्धता में शेष तीन घातिया कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। घातिया कर्मों के नष्ट होने पर स्वभाव स्वयं प्रगट हो जाता है और आत्मा सर्वज्ञ बनकर सब ज्ञेयों को जान लेता है। शुभोपयोग के वर्णन में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु। उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा॥ प्रवचनसार 1/69 देव, यति और गुरु की पूजा में, दान में तथा सुशीलों में और उपवासादिकों में लीन आत्मा शुभोपयोगात्मक है। जो सर्व दोष रहित परमात्मा है, वह देवता है, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध आत्मा के स्वरूप में साधन में उद्यमवान् है वह यति है। जो स्वयं निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय का आराधना करने वाला है और ऐसी आराधना के इच्छुक भव्यों को जिन दीक्षा का देने वाला है वह गुरु है। इन देवता और गुरुओं की तथा उनकी मूर्ति आदिकों की यथासम्भव द्रव्य और भावपूजा करना, आहार, अभय, औषधि और विद्यादान ऐसा चार प्रकार का दान करना, शीलव्रतों को पालना तथा जिनगुण सम्मत्ति को आदि लेकर अनेक विधि विशेष से उपवास आदि करना, इतने शुभ कर्मों में लीनता करता हुआ तथा द्वेष रूप भाव व विषयों के अनुराग रूप भाव आदि अशुभ उपयोग से विरक्त होता हुआ जीव शुभोपयोगी होता है। ___यहाँ आचार्य ने शुद्धोपयोग में प्रीतिरूप शुभोपयोग का स्वरूप बताया है अथवा अरहंत सिद्ध परमात्मा के मुख्य ज्ञान और आनन्द स्वभावों का वर्णन करके उन परमात्मा ने आराधन की सूचना की है

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