Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 अथवा मुख्यता से उपासक का कर्त्तव्य बताया है। शुभोपयोग तीव्र कषायों के अभाव में होता है। श्री समन्तभद्राचार्य ने लिखा हैस विश्वचक्षुर्वृषभोऽर्चितः सतां समग्रविद्यात्मवपुर्निरञ्जनः। पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः॥ स्वयंभूस्तोत्र 5 वह जगत को देखने वाले, साधुओं से पूजनीय पूर्ण ज्ञानमय देह के धारी, निरञ्जन व अल्पज्ञानी अन्यवादियों के मत को जीतने वाले श्री नाभिराज के पुत्र श्री वृषभ जिनेन्द्र मेरे चित्त को पवित्र करो। भावों की निर्मलता होने से जो शुभ राग होता है, वह तो अतिशय पुण्यकर्म को बांधता है, जो मोक्ष-प्राप्ति में सहकारी कारण होते हैं। जैसे तीर्थकर, उत्तमसंहनन आदि। शुभोपयोग में वर्तन करने से उपयोग अशुभोपयोग से बचा रहता है तथा यह शुभोपयोग शुद्धोपयोग में पहुंचने के लिए सीढ़ी है। इसलिए शुद्धोपयोग की भावना करते हुए शुभोपयोग में वर्तना चाहिए। वास्तव में शुभोपयोग सम्यग्दृष्टि में ही होता है। तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग को इस बात में उपादेय मानकर उसी की भावना से प्राप्ति के लिए अरहंत भक्ति आदि शुभोपयोग मार्ग में वर्तना चाहिए। पुण्यजन्य इन्द्रिय सुख में अनेक प्रकार से दुःख को बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तधा। प्रवचनसार 1/76 अर्थात् पर सम्बन्ध-युक्त होने से, बाधा सहित होने से, विच्छिन्न होने से, बन्ध का कारण होने से, विषम होने से पुण्य-जन्य भी इन्द्रिय सुख दु:खरूप ही है। ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो॥ प्रवचनसार 1/77 इस प्रकार पुण्य और पाप में अन्तर नहीं है इस बात को जो नहीं मानता है वह मोह से आच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96