Book Title: Anekant 2016 07
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 30
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 विशेष यह है कि द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप में व्यवहारनय से भेद है। भाव पुण्य और भाव पाप में तथा पुण्य के फलस्वरूप सुख और दुःख में अशुद्ध निश्चयनय से भेद है परन्तु शुद्ध निश्चयनय के ये द्रव्यनय पापादिक सब शुद्ध आत्मा ने स्वभाव से भिन्न हैं, इसलिए इन पुण्य पापों में कोई भेद नहीं है। इस तरह शुद्ध निश्चय नय से पुण्य व पाप की एकता को जो कोई नहीं मानता है वह इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, कामदेव आदि ने पदों के निमित्त निदान बन्ध से पुण्य को चाहता हुआ मोह रहित शुद्ध आत्मतत्त्व से विपरीत दर्शन मोह तथा चारित्र मोह से ढका हुआ सोने और लोहे की बेड़ियों ने समान पुण्य-पाप दोनों से बंधा हुआ संसार रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता है। मोह के नाश के उपाय के सम्बन्ध में लिखा हैजिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहि बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधितव्वं॥ प्रव.सार 1/86 जिन शास्त्र से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले पुरुष के नियम से मोह समूह नष्ट हो जाता है इस कारण से शास्त्र सम्यक् प्रकार से अध्ययन करने योग्य हैं। अशुभ उपयोग, विकार रहित शुद्ध आत्म तत्त्व की रुचि रूप निश्चय सम्यक्त्व से तथा उस ही शुद्ध आत्मा में क्षोभ रहित चित्त का वर्तनारूप निश्चय चारित्र से विलक्षण या विपरीत है। विपरीत अभिप्राय से पैदा होता है तथा देखे, सुने, अनुभव किये हुए पंचेन्द्रियों के विषयों की इच्छामय तीव्र संक्लेश रूप है, ऐसे अशुभ उपयोग से जो पाप कर्म बांधे जाते हैं, उनके उदय होने से यह आत्मा स्वभाव से शुद्ध आत्मा के आनन्दमयी पारमार्थिक सुख में विरुद्ध दु:ख से दु:खी होता हुआ व अपने स्वभाव की भावना से गिरा हुआ संसार में भ्रमण करता है। अशुभ के उदय से आत्मा हीन मनुष्य, तिर्यञ्च या नारकी होकर हजारों दु:खों से निरंतर पीडित होता हआ संसार में अत्यन्त दीर्घ काल तक भ्रमण करता विशुद्ध ध्यान कब होता है इस सम्बन्ध में चारित्रप्राभृत में लिखा

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