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अनेकान्त 6/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 आकार वाला है। वह भिन्न-भिन्न कालों में खण्ड-खण्ड होकर अनेक भूविभागों के रूप में विभाजित हुआ। वर्तमान के भूखण्डों को ध्यान में रखकर अफ्रिकाखण्ड से जोड़ने पर वे अधिकतम समाविष्ट होकर भूमि एक सन्दर मण्डलाकार के रूप में परिलक्षित होती है। इस प्रकार मण्डलाकार भभाग में भरतखण्ड भी एक है. जो अरह (अरब). समेरुपर्वत (ईजिप्ट-मिश्रराष्ट्र)-इराक देशों का बहुभाग भूप्रदेश, इरान (पारसनाथ का विहारस्थल) पारसी-पार्सदेश, अफघन (बाहुबली का पोदनपुर) अरहन्देश, जिन-चिन-चीन, बर्मा आदि आर्यखण्ड के सभी भू-प्रदेशों में आदिब्रह्मा आदिनाथ ने विहार किया था। इनके उपरान्त भी अजितनाथ आदि अन्य सभी तीर्थंकरों ने भी भरतार्य खण्डों के सभी भूप्रदेशों में विहार कर जिनध र्म का उपेदश-प्रचार-प्रसार किया था, परन्तु किसी अमुक काल में भूभाग प्रकृति के प्रकोप से खण्ड-खण्ड होकर अनेक उप-प्रदेश बना, जो अफ्रीका एवं ईजिप्टदेशों से लेकर अरब, इरान्, अफगान, पाकिस्तान, भारत, चीन, बर्मा आदि देशों तक विस्तृत हुआ है। वही प्रायः भरतार्यखण्ड होना चाहिये। यद्यपि यह बताना कठिन है कि किस तीर्थकर के समय का भूखण्ड का विस्तार क्या था, तथापि महावीर तीर्थकर के समय के भूखण्ड के विस्तार के विषय में अवश्य बता सकते हैं, जो जैनपुराण ग्रन्थों में यत्र-तत्र वर्णित महावीर तीर्थकर के तीर्थप्रवर्तन के विवरणों से प्राप्त होता है। उसी आधार पर सम्पूर्ण उत्तर-दक्षिण के प्रदेशों में भगवान् महावीर तीर्थकर का विहार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, परन्तु भारत की सीमा तक के ही प्रमाण प्राप्त होते हैं। भारत की सीमा से बाहर के प्रदेशों के विहार के उल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं। बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के समय द्वारिका नगरी समुद्र में डूबने की घटना से भी यह स्पष्ट होता है कि नेमिनाथ भगवान् के समय भरतार्यखण्ड अखण्ड जम्बूद्वीप में विभाजित हुआ। इस प्रकार भरतार्यखण्ड की व्यापकता बर्मा देश से लेकर भारत, चीन, पाकिस्तान, ग्रीस, रोम, मिश्रराष्ट्र तक व्याप्त थी।
इस प्रकार यह दृढ़ता से कह सकते हैं कि जैनधर्म भरतार्यखण्डों में दृढ़ता से व्याप्त हुआ था। जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेव के युग से लेकर बाद के युगों तक इस्रेल, ईजिप्ट देश से लेकर बर्मा देश तक