________________
अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
ईहा अपोह मीमांसा, मग्गाण य गवेसणा।
सण्णा सती मती पण्णा सव्वं आभिणिबोधियं॥६७७॥ अर्थात् ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, शक्ति, मति और प्रज्ञा- ये सब आभिनिबोधिक या मतिज्ञान है। २. श्रुतज्ञान - श्रुतज्ञ के विषय में कहा है
अत्थाओ अत्यंतर-मुवलंभे तं भणंति सुयणाणं।
आभिणिबोहियपुव्वं णियमेण य सद्दयं मूलं॥६७८॥ अर्थात् अनुमान की तरह अर्थ (शब्द) को जानकर उस पर से अर्थान्तर (वाच्यार्थ) को ग्रहण करना श्रुतज्ञान कहलाता है। यह नियमतः आभिनिबोधिकज्ञानपूर्वक होता है। इसके लिंगजन्य और शब्दजन्य - ये दो भेद हैं। धुआँ देखकर अग्नि का ज्ञान होना लिंगज है और वाचक के शब्द सुनकर या स्वयं पढ़कर होने वाला ज्ञान शब्दज है। आगम में शब्दजन्य श्रुतज्ञान का ही प्राधान्य
है।
३. अवधिज्ञान - "अवधीयते इति अवधिः-" अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की
मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को एकदेश जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। आगमों में इसे “सीमाज्ञान" भी कहा है। इसके दो भेद हैं - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय।
(गाथा सं. ६८१) ४. मनःपर्ययज्ञान - जो ज्ञान मनुष्यलोक में स्थित जीव के चिन्तित, अचिन्तित,
अर्धचिन्तित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को प्रत्यक्ष जानता है, वह मनःपर्ययज्ञान है॥६८२॥ केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान है। कहा भी है कि केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में से ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे केवलज्ञान नहीं जानता
हो॥६८४॥ केवलज्ञान की विशेषताओं के विषय में समणसुत्तं में कहा है -
___केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च।
पायं च नाणसद्दो, नामसमाणाहिगरणोऽयं ॥६८२॥ अर्थात् “केवल" इस शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ हैं। इसीलिए केवलज्ञान "एक" है। इन्द्रियादि की सहायता से रहित है और इसके होने पर अन्य सभी ज्ञान निवृत्त हो जाते हैं - इसीलिए यह “एकाकी" है। मलकलंक रहित होने से 'शुद्ध' है। सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से “सकल" है। इसके समान और कोई ज्ञान नहीं है, अतः “असाधारण" है। इसका कभी अन्त नहीं होता, अतः अनन्त है। ये सब केवलज्ञान की विशेषतायें हैं।