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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 कितना महान है, जो नीर-क्षीर को अलग कर देता है। हे हंस आत्मा! तू कितना महान है जो आत्मा और कर्म को अलग कर देता है। हे हंस आत्मन्! नीर-क्षीर तो जड़ की क्रिया है और स्वात्मा और कर्म, चेतना की क्रिया है। अहो ज्ञानियों ! वन वाटिका से आज निकल जाओ
और चेतन की वाटिका में प्रवेश करके तुम आत्मा को कर्मों से भिन्न निहारना प्रारम्भ करो। ये सूत्र बाल से लेकर वृद्धों को समझना है। शिखर तो अन्त में चढ़ता है। पर नींव पहले भरनी पड़ती है। बिना नींव भरे कलश कैसे चढ़ेगा, बिना भेद विज्ञान के वीतराग भाव कैसे आयेगा? भेद विज्ञान तो आज से ही करना है। भेद विज्ञान शब्दों से नहीं करना। स्वभाव में करना।
एकत्व भाव वहीं आ सकता है, जहाँ विभक्त भाव होगा। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है -
आदा खु मज्झ णाणं में दंसणंचरित्तं च।
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो।। अर्थात् आत्मा ही संवर, आत्मा ही योग है, आत्मा ही प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान है, आत्मा ही ज्ञान है इसलिए निश्चय की दृष्टि से जो कुछ है, सब आत्मा है। आत्मा ही आत्मा का गुरु है यथा
स्वस्मिन् सदमिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः। स्वयं हित प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः।। नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति।
निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत। इष्टोपदेश ३४,३५ जगत् के द्रव्य ज्ञेय तो हैं, पर हेय भी हैं, उपादेय तो एक चिद्स्वरूप आत्मा है।
इसी प्रकार आचार्य पूज्यपाद प्रणीत इष्टोपदेश ग्रन्थ में आत्म तत्व का सूक्ष्मरीत्या प्रतिपादन है उसमें आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार का सार भरा हुआ है। पूज्य आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज अध्यात्म रस के रसिक हैं। आत्मा का संवेदन अनुभवगम्य है। योगी साधन में निरत रहकर आत्मिक आनन्द का अनुभव करते हैं। उनके मुखारबिन्द से निसृत अमृतमयी वचन हम अज्ञानी जनों को सन्मार्ग की ओर अग्रसर कराते हैं। पूज्य श्री की इष्टोपदेश ग्रन्थ पर सर्वोदयी देशना समत्व के सागर में निमज्जित कराकर असीम आनन्द प्रदात्री है।
संदर्भ: १. आचार्य विशुद्धसागर : सर्वोदयी देशना, पृ. ९५ २. वही, पृ. १६३ ३. वही, पृ. १६३ ५. वही, पृ. १९० ६. वही, पृ. ३२
४. वही, पृ. २४४ ७. वही, पृ. १८७
- विभागाध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी