Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 330
________________ गतांक से आगे... श्रमण संस्कृति की व्यापकता प्रो. डॉ.राजाराम जैन श्रमण-जैन-साहित्य की व्यापकता : श्रमण-संस्कृति के दूसरे प्रमुख अंग-श्रमण-साहित्य को लें तो विश्व में उसकी लोकप्रियता और व्यापकता भी आश्चर्यजनक है। इसका मूलकारण है, उसमें समाहित समाज की मुख्य इकाई-मानव के चरित्रोत्थान के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान,मनोविज्ञान और लोकजीवन संबन्धी सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक सामग्री की प्रचुरता।समाज एवं राष्ट्र के बहुआयामी विकास के लिये इस प्रकार के जीवन-मूल्यों सम्बन्धी सामग्री आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी होती है। ___ जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अपने लेखन-कार्य के पूर्व राष्ट्रिय एवं सामाजिक समस्याओं एवं आवश्यकताओं को समझने के प्रयत्न अवश्य किये होंगे। तत्पश्चात् उनके रचनात्मक समाधान के लिए स्वयं गहन-चिंतन भी किया होगा। उन्होंने सर्वप्रथम यह अनुभव किया कि व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज बनता है और उससे राष्ट्र एवं विश्व। अतः यदि व्यक्ति सात्विकजीवी एवं सच्चरित्र बनता है, यदि वह मानव-जीवन को विकृत कर देने वाली हिंसा, असत्य,चोरी,कशील एवं परिग्रह के प्रति आसक्ति तथा क्रोध, मान, माया एवं लोभ जैसी दुष्प्रवृत्तियों से दूर रहे तो, परिवार समाज एवं राष्ट्र स्वतः ही चरित्रवान् उदार-हृदय, परोपकारी एवं आदर्श बन सकेंगे। श्रमण-संस्कृति के महानायकों एवं आचार्यों ने यह भी अनुभव किया कि सामान्य जनता के लिये समकालीन लोकप्रिय जनभाषा में ही सर्वोदयी प्रवचन एवं साहित्य-लेखन होना चाहिए। ध्यातव्य है कि महावीर-काल (ई.पू. ५९९-५२७) से लेकर ईस्वी सन्की प्रारम्भिक दो सदियों तक परम्परा-प्राप्त लोकप्रिय जनभाषा प्राकृत रही।यही कारण है कि सामान्य जनता की सुगमता की दृष्टि से महावीर एवं गौतम-बुद्ध के उपदेशों के साथ-साथ बडली शिलालेख (ई.पू.४४३) मौर्य सम्राट अशोक

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