Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 328
________________ 88 अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 समाज की एक विशेषता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि समाज मात्र व्यक्तियों का समूह या भीड़ नहीं है, उसका अपना एक तंत्र या व्यवस्था है। यह सामाजिक व्यवस्था भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन मात्र है। स्वहित-साधन या स्वार्थ-पूर्ति यह सभ्य समाज में मनुष्य का जीवन का लक्ष्य नहीं है।समाज स्वार्थ या स्वहित-साधन के मूल्य पर खड़ा नहीं होता है, उसका आधार त्याग और समर्पण के मूल्य है। स्वार्थी व्यक्तियों का समूह समाज नहीं होता है, दूसरे शब्दों में चोरों,डाकुओं या लुटेरों का समूह समाज नहीं होता है। समाज के निर्माण हेतु स्वहितका त्याग या स्वार्थका त्याग आवश्यक है। उसका आधार सहयोग एवं मैत्री की भावना हैं। ये आदर्श जीवन मूल्य भी आज हमें शिक्षा के माध्यम से प्राप्त होते हैं, किन्तु यह शिक्षा किसी स्कूल एवं कॉलेज में नहीं होती, अपितु घर-परिवार और समाज में ही होती है। स्वस्थ मनुष्य एवं स्वस्थ समाज के लिए इन जीवन मूल्यों का प्रशिक्षण आवश्यक है किन्तु इसकी प्राथमिक पाठशाला-घर-परिवार, समाज और धर्म है।सद संस्कारों का यापन जीवन प्रबन्धन की शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। वस्तुतः समाज प्रबन्धन समाज का प्रबन्धन नहीं है, वह अपनी जीवन शैली का प्रबन्धन है। वह समाज के दूसरे सदस्यों के प्रति हमारी सम्यक् जीवन शैली या सम्यक् व्यवहार का ढंग सीखता है। आज सामान्य जन की एक मान्यता यह है कि समाज सुधार से व्यक्ति का सुधार होगा, किन्तु यह एक गलत अवधारणा है।समाज का प्रमुख घटक व्यक्ति है,जबतकवैयक्तिक स्तर पर सुधार के प्रयत्न नहीं होंगे-समाज सुधार सम्भव नहीं है। भारतीय चिन्तन में जो चार पुरुषार्थ माने गये हैं और उनमें से तीन - धर्म, अर्थ और काम समाजाधारित है। ___धर्मव्यवस्था या धर्मतन्त्रका मुख्य कार्यतो सम्यक्सामाजिक जीवनशैली का विकास करना ही है। एक सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण त्याग एवं संयम के जीवन मूल्यों को जीवन व्यवहार में स्थान देने से ही संभव है। धर्म, समाज या परिवार के दूसरे सदस्यों के हित साधन हेतु त्याग समर्पण एवं सेवा के जीवन मूल्यों को आत्मसात् करना होगा। धर्म एक नियामक जीवन मूल्य है, दूसरे शब्दों में धर्म, अर्थ, काम और पारस्परिक व्यवहार का नियामक

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