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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
प्राप्त सूचनाओं के आधार पर जर्मनी में लगभग ५ हजार ग्रन्थागार हैं, जिनमें से अकेले बर्लिन के ही एक ग्रन्थागार में १२ हजार भारतीय पाण्डुलिपियाँ हैं। उनमें प्राकृत-भाषा एवं जैन-साहित्य की अनेक पाण्डुलिपियाँ हैं।
बर्लिन विश्वविद्यालय में लगभग ८ दशकों से प्राकृत एवं जैन विद्या का अध्ययन एवं शोध कार्य चल रहा है। __ ओ.बोहटलिंस्क (सन्१८४८ ई.)- ने सुप्रसिद्ध कोश-ग्रन्थ-अभिधानचिन्तामणि(आचार्य हेमचन्द्र,१३वीं सदी)की विशेष उपयोगिता देखकर उसका संपादन कर जर्मनी से उसका प्रकाशन कराया।
अल्ब्रेख्त बेबरे (१८६६ ई.)- द्वारा शत्रुजय-माहात्म्य तथा अर्धमागधी अंग-आगम के छठवें ग्रन्थ-भगवती-सूत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों के अनुवाद उनके ऐतिहासिक मूल्यांकन के साथ प्रकाशित किये गये। __ अल्बर्ट बेबर-प्राच्य-विद्याविदोंकी दृष्टि में अल्बर्ट बेवर सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के धनी तथा अथक परिश्रमी-साधक थे। जिस समय भारतीय पाण्डुलिपियों के मूल-पाठों के संस्करण नितान्त दुर्लभ थे, उस समय की मांग का अनुभव कर उन्होंने दर्जनों पाण्डुलिपियों का अध्ययन एवं समीक्षात्मक मूल्यांकन किया
और उससे देश-विदेश के प्राच्य-विद्याविदों को प्रेरित कर उनका मार्ग-दर्शन किया था।
डॉ. होर्नले (१८४१-१९१८) ने अर्धमागधी प्राकृत के सातवें अंग"उवासगदसाओं" का समीक्षात्मक सम्पादन एवं अनुवाद कर उसके मूल्यांकन से प्राच्य विद्या जगत् को प्रभावित किया है। ___ गेआर्ग व्यूलर से उक्त बेवर ने गुजरात की अनेक जैन-पाण्डुलिपियाँ प्राप्त कर उनका भी समीक्षात्मक अध्ययन किया था। इस समीक्षात्मक अध्ययन ने एन्सर्ट लाउमेन (१८५९-१९३१ ई.) तथा हर्मन याँकोवी को पर्याप्त प्रभावित किया। __सम्भवतः हर्मन याँकोवी (१८५०-१९३७) प्रथम ऐसे विद्वान् थे, जिन्होंने दिन-रात अथक परिश्रम कर पाश्चात्य-विद्वानों को सबसे पहिले यह प्रतीति कराई थी कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं है। उन्होंने विविध प्रमाणों के साथ उसेसर्व प्राचीन एवं स्वतंत्र धर्म घोषित किया था जिसे प्रायः सभी ने स्वीकृत किया।