Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 322
________________ ना जैनदर्शन में जीवन प्रबन्धन तत्त्व प्रो. सागरमल जैन जीवन प्रबन्धन दो शब्दों का एक सांयोगिक शब्द है । प्रबन्धन शब्द का सामान्य अर्थ सही ढंग से व्यवस्था करना है। प्राचीन जैन दर्शन में प्रबन्धन के लिए तंत्र शब्द का भी प्रयोग होता है। वस्तुतः जीवन- तंत्र को सम्यक् रूप से समझे बिना, जीवन का सम्यक् प्रबन्धन सम्भव नहीं है । मानव जीवन एक आध्यात्मिक एवं मनोदैहिक संरचना है। हमारे जीवन के तीन पक्ष हैं - आत्मा, मन और शरीर । प्रबन्धन शब्द- तंत्र की अपेक्षा भी एक व्यापक अर्थ रखता है, उसमें यथार्थ और आदर्श दोनों ही निहित है। जीवन व्यवस्था कैसी है, और उसे कैसा होना चाहिए- ये दोनों ही बातें प्रबन्धन शब्द में निहित है। वह यथार्थ और आदर्श का एक सम्ममिश्रण है। जीवन क्या है और जीवन को कैसे जीना चाहिए? ये दोनों ही बातें जीवन प्रबन्धन में है। जब इसे हम जैन आचार्यों की दृष्टि से देखते हैं, तो वह जैन जीवन - प्रबन्धन की विधि बन जाती है। जीवन का प्रबन्धन वस्तुतः बहुकोणीय होता है, क्योंकि जीवन स्वयं बहुआयामी है । जीवन को जीने के जो विविध आयाम है, उनके आधार जीवन- प्रबन्धन की हम विविध भागों में विभाजित कर सकते हैं। वस्तुतःबाल्यकाल से ही जीवन प्रबन्धन का प्रयास प्रारंभ हो जाता है । बालक जब युवावस्था की ओर बढ़ने लगता है, तो उसे शिक्षित करने का प्रयास किया ता है। बालक की शिक्षा कैसी हो और उसे किस प्रकार दी जाए यह जीवन प्रबन्धन का प्राथमिक तत्त्व है। जैन दर्शन की मान्यता है कि हमें जो जीवन मिला है, वह मात्र जीवन जीने के लिए नहीं मिला है, अपितु किसी लक्ष्य या आदर्श की पूर्ति के लिए मिला है। जीवन तो पेड़-पौधे और अन्य प्राणी भी जीते हैं, लेकिन उनका जीवन लक्ष्य विहीन होता है। जीवन में लक्ष्य का निर्धारण IL IL

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