Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 325
________________ अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 माध्यम से जीवन को जिस प्रकार जिया जाना चाहिए हम नहीं जी पायेंगे। इसके लिए हमें पूरी तरह से स्वास्थ-विज्ञान और आहार-विज्ञान के नियमों को समझकर, उनका पालन करना होगा।वे सारे तत्त्व जो शारीरिक रूग्नता और मानसिक तनाव को जन्म देते हैं, उनका वर्जन करना होगा।हमें सम्यक् आहार के माध्यम से शरीर का पोषण करना होगा, तब ही हम शरीर को स्वस्थ रख पायेंगे।शरीर के सम्बन्ध में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी जीवनयापन शैली ऐसी हो जिसमें शरीर की सुरक्षा की भी सम्यक् व्यवस्था भी हो। अति साहस और अति भोग दोनों ही शारीरिक सुरक्षा में बाधक होते हैं। वासना के अधीन भोग और शरीर की क्षमता का ध्यान नहीं रखते हुए कार्य करना दोनों ही शरीर प्रबन्धन में बाधक होते हैं। शरीर जीवन-जीने का एक सम्यक साधन है, उसका उपयोग भी सम्यक तरीके से होना चाहिए।शरीर प्रबन्धन हमें यही सिखाता है। यहाँ भी वासना और विवेक का सम्यक् समायोजन आवश्यक होता है। अतः व्यक्ति को यह सीखना भी आवश्यक होता है कि वह अपने शरीर और शारीरिक शक्तियों का विनियोग सम्यक प्रकार से करे। मनुष्य एक मनोदैहिक रचना है, अतः उसे दैहिक और मानसिक दोनों आधारों पर सम्यक्रूप से जीवन जीना होगा।जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य यह भी कि वह न केवल स्वस्थ शरीर के माध्यम से जी सके, अपितु स्वस्थ मन से भी जी सके।आज जो वैश्विक समस्याएं हैं, उसमें मानसिक तनाव एक प्रमुख कारण है, क्योंकि सम्यक् जीवन के लिए स्वथ्य मानसिकता आवश्यक है। यदिव्यक्ति मानसिक विकारों और तदजन्य तनावों का सम्यक प्रबन्धन करने में सफल नहीं होता, तो वह अपने जीवन को सही ढंग से नहीं जी पाता है। मानसिक विकार और उनसे उत्पन्न होने वाले तनाव क्यों, कब और कैसी परिस्थिति में उत्पन्न होते हैं, यह समझना भी आवश्यक है और उनसे मुक्त रहना भी आवश्यक है। यह सत्य है कि तनाव के कारण आंतरिक और बाह्य दोनों हो सकते हैं, फिर भी तनाव न केवल एक मनोदैहिक संरचना है, अपितु वह एक मानसिक सत्य भी है। तनावों से मुक्त होकर समता और शांति पूर्ण जीवन कैसे जिया जाए यह भी जीवन प्रबन्धन के माध्यम से ही जाना जा सकता

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