Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 314
________________ अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 भटक रहे जिनभक्तों, श्रावकों, मुमुक्षुओं को अत्यन्त वात्सल्य पर आचार्य प्रवर सम्बोधते हैं - __ “नरक आयु का बंधक संयम धारण करना तो दूर, संयमी के हाथ पर ग्रास भी नहीं रख सकता है।वे अभागेजीव हैं।आज ही अपने अपने घर जाकर सोचना कि जीवन में किसी निर्ग्रन्थ योगी के हाथ में ग्रास रखा है कि नहीं? और रखने के भाव नहीं आते हैं,तोसमझ लेना कि तेरी भवितव्यता बिगड़ चुकी है।” (श्लोक १, पृ. २) __ सर्वोदयी देशना का वर्णनात्मक आध्यात्मिक वैशिष्ट्य तो है ही किन्तु उससे भी बड़ा वैशिष्ट्य उसके रचनाकार का है जो आज योगियों की तथाकथित सांसारिक दौड़ों से दूर रहकर माँ भगवती की आराधना कर रहा है और आत्मा की साधना कर रहा है अन्त में सर्वोदयी देशना की भूमिका से उन वाक्यों को उद्धृत कर मैं विराम लेता हूँ जिसमें देशनाकार की निस्पृहता स्पष्ट झलक रही है - “महाराज श्री! अब तो आपकी भी कोई गिरि बनने वाली होगी? उत्तरज्ञानी! जो हमें ही गिरा देगी, वे गिरि कैसे होगी? जो ऊपर उठा देगी, वो, गिरनार होगी। इसलिए मेरे जीवन में यदि कोई गिरी है तो, मनीषियों! वह है- (गाथा) १८ हजारशील की सम्पत्ति जो अयोगकेवली गुणस्थान में प्राप्त होती है। उससे बड़ी गिरि कोई नहीं होगी।' संदर्भ : १. सर्वोदयी देशना (पूज्यपाद विरचित इष्टोपदेश पर वाचना) - वाचनाकार - आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज। - स.आचार्य, जैनदर्शन विभाग, श्री ला.ब.शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली-११००१६

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