Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 312
________________ अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 है, वो पर है। जो द्रव्यदृष्टि में जीता है, वह परा है। ‘परा' उपसर्ग है। परा यानि उत्कृष्ट। 'द्रव्य दृष्टि महेश्वराः, पर्याय दृष्टि नरकेश्वराः।” (भूमिका, पृ. ६) ___ इसीलिए दृष्टि बदलने की देरी है, सृष्टि बदलना संभव नहीं। आचार्य श्री के वचन हैं - " दृष्टि को निर्मल करो, वस्तु को निर्मल करने की आवश्यकता नहीं है। सुख कहीं नहीं, दुःख कहीं नहीं। दृष्टि को बदलने की चेष्टा करो।" (पृ. १२) हम जानते हैं कि व्यवहार भेदपरक होता है और निश्चय अभेदपरक।आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्म ख्याति टीका में आत्माश्रितो निश्चयः, पराश्रितो व्यवहारः' कहा है।अतः सच्ची भक्ति की निश्चय में ही सम्भव है।व्यवहार में जो भक्ति का स्वरूप है वह निश्चय के साथ ही सच्चा होता है क्यों भगवान् की भक्ति पराश्रय के लिए नहीं वरन् स्वाश्रय के लिए की जाती है। आचार्य श्री कहते है। “भगवान की भक्ति करो, भगवान् की आराधना करो, भगवान पर आश्रित होने के लिए नहीं, स्वाश्रित होने के लिए भगवान् की आराधना करो। मुमुक्षु जीव पराश्रित कभी भी नहीं होता, भीख मांगते भी पराश्रित नहीं होता।" (पृ.८) वे स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि -“ व्यवहार दृष्टि से देखोगे तो झगड़ोगे" - (पृ.८)। अतः निश्चय की दृष्टि रखनी ही पड़ेगी। ज्ञानी तो अशुभोपयोग के साथ साथ शुभोपयोग को भी बन्धन ही जानता है। इसीलिए वह पहले अशुभोपयोग से हटता है और शुभोपयोग में आता है और फिर शुभोपयोग से भी परेशुद्धोपयोग में स्थित होने का प्रयास करता है। यहाँ वह शभोपयोग को भी साधनही मानता है साध्य नहीं। देशनाकार इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं - __ “सम्यग्दृष्टि जीव शुभोपयोग के लिए शुभोपयोग नहीं करता। ज्ञानी ! वह अज्ञानी होगा जो औषधि खाने के लिए औषधि खायेगा।...औषधि कभी न खाना पड़ जाये, इसलिए कर्म के उदय में औषधि खाना पड़ती है। अशुभोपयोग से बचने के लिए सम्यग्दृष्टि शुभोपयोग की क्रिया करता है और शुद्धपयोग में जाने के लिए करना पड़ता है। (पृष्ठ-२०)

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