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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 ___वस्तु-भेद के न्याय के अनुसार जिन दो में परस्पर लक्षण-भेद होता है वे दो एक-दूसरे से भिन्न होते हैं जैसे जल और अनल (अग्नि)। स्वात्मा और राग-द्वेष-मोह व शरीरादिक में यह लक्षणभेद युक्ति-सिद्ध हैं (श्लोक २३)।
चिन्मय आत्मा के स्व और पर अर्थ ग्रहण व्यापार को उपयोग कहते हैं। आत्मा दर्शन और ज्ञान-उपयोग रूप हैं। श्रुति की दृष्टि शब्दगत को दर्शनोपयोग और अर्थगत को ज्ञानोपयोग कहते हैं (श्लोक २४)। ___भाव या अनुष्ठान के अनुसार उपयोग के तीन भेद हैं - अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोग। राग-द्वेष-मोह के भाव के द्वारा आत्मा की जो क्रिया-परिणति होती है, वह अशुभ उपयोग है। केवली-प्रणीत धर्म में अनुराग रखने रूप जो आत्मा की परिणति होती है, वह शुभ उपयोग है तथा अपने चैतन्य स्वरूप में लीन होने रूप आत्मा की जो परिणति बनती है, वह शुद्ध उपयोग है (श्लोक ५६)। शुभ-अशुभ से परे शुद्ध उपयोग परम समाधि रूप है। आत्म-शुद्धि का सूत्र : शुद्ध उपयोग -
राग-द्वेष-मोह से आत्मा का उपयोग मलिन और अशुद्ध होता है। शुद्ध-उपयोग से आत्मा की शुद्धि होती है। शुद्ध उपयोग वह कहलाता है जो राग-द्वेष-मोह रहित होता है। इसी की पुष्टि में कहते हैं कि 'जो ध्यानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध आत्मा में राग, द्वेष तथा मोह से रहित शुद्ध उपयोग को धारण करता है वह शुद्धि को प्राप्त होता है (श्लोक २५)। रागादि अविद्या के नाश का सूत्र : उपेक्षा-विद्या -
संसार-दुख का मूल कारण पर-वस्तुओं से सुख प्राप्ति की कामना रूप अविद्या है जो राग-द्वेष-मोह रूप हैं। इस अविद्या का छेदन उपेक्षा रूप विद्या से होता है। उपेक्षा रागादि के अभाव को कहते हैं। उपेक्षा भाव की वृद्धि के साथ अविद्या का हास और आत्म गुणों का विकास उत्तरोत्तर होता है। इसकी पुष्टि में कहते है कि 'मुझ में जो अविद्या विद्यमान है उसे उपेक्षा नाम की विद्या से निरंतर काटते हुए मुझमें मेरे स्वरूप की प्रकटता होती है और यह प्रकटता क्रम-२ से चरम सीमा को भी प्राप्त हो जाती है (श्लोक ४२)।' अतः उपेक्षा-भाव धारण करना इष्ट है। समत्व और उपेक्षा एकार्थी हैं। आत्मानुभूति की प्रक्रिया -
स्वात्मा विचार करता है कि पर्याय दृष्टि से समस्त वस्तुओं के विस्तार-आकार से पूर्ण होता हुआ भी मैं द्रव्यदृष्टि से एक ही हूँ और निश्चयतः किसी भी शब्द का वाच्य नहीं होकर अनिर्वचनीय हूँ (श्लोक ४३)। अतएव इस अनिर्वचनीय परब्रह्म-परमोत्कृष्ट आत्मपद की-प्राप्ति के लिये इस सूक्ष्म शब्द-ब्रह्म के द्वारा - सोऽहं इस प्रकार अन्तर्जल्प से - मैं इस मन को संस्कारित करता हूँ (श्लोक ४०)। पश्चात् आठ पत्रों वाले अद्योन्मुख (उलटा) द्रव्यमन रूप कमल में, योग (ध्यान) रूप सूर्य के तेज से विकसित हृदय-कमल के भीतर स्फुरायमान परंज्योति-स्वरूप मैं हूँ, उसका अनुभव करना चाहिये (श्लोक ४५)।
उक्त प्रक्रिया में मोहान्धकार के नष्ट होने और इन्द्रिय तथा मनरूप वायु का संचार रुकने पर यह पर-पदार्थों से शून्य तथा सम्यग्दर्शनादि आत्मगुणों से अशून्य मैं ही अन्तर्दृष्टि से मेरे