Book Title: Anekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 292
________________ वास्तु शांति की आवश्यकता एवं वैशिष्ट्य डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' वास्तु शब्द की संरचना के मूल में वस्तु शब्द है। यह संस्कृत के वास' शब्द से बना है जिसका अर्थ है निवास करना'। यह किसी के स्थिर होने की सूचना देता है। वास्तु के मूल में भूमि और उसके ऊपर मिट्टी सीमेन्ट, चूना, ईंट, पत्थर, लोहा, लकड़ी आदि से निर्मित भवन होता है। सामाजिक दृष्टि से जब मनुष्य समाज के बीच में संस्कारित होकर रहता है तब उसे वास्तु की आवश्यकता होती है जहाँ वह रहकर धूप, पानी (वर्षा), शीत से बच सके। वह प्रकृति के प्रकोप से भी बचा रह सके और प्रकृति को अपने अनुकूल ढाल भी सके।इसके लिए आवश्यक है कि वास्तु की संरचना शास्त्र सम्मत हो। कहा भी है कि प्रसादो मण्डपश्चैव, विना शास्त्रेण यः कृतः। विपरीत विभागेषु, योऽन्यथा विनिवेशयेत् ।।२१।। विपरीत फलं तस्य, अनिष्टं तु प्रजायते। आयु शो मनस्तापः पुत्र-नाशः कुलक्षयः।।२२।। शास्त्र प्रमाण के बिना यदि देवालय,मण्डप गह, दकान और तल भाग आदि का विभाग किया जाएगा तो उसका फल विपरीत ही मिलेगा, अनिष्ट होगा, असमय में आयु का नाश, पुत्रनाश, कुल-क्षय और मनस्ताप होगा। __ मानव जीवन के चार पुरुषार्थ माने गये हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें से प्रथम तीन पुरुषार्थ-धर्म(धार्मिक आचरण,पुण्योपार्जन), अर्थ(धन कमाना), काम(भौतिक जीवन का आनंद उठाना) घर में रहकर ही मनुष्य करता है।अतः मानव जीवन में वास्तु का विशेष महत्व है। संसार को बढ़ाने का कार्य संतति का है, संतति के संरक्षण का कार्य भी संसारियों का है। अतः उनके निवास के लिए उनके स्वास्थ्य रक्षण के लिए, उनके पारिवारिक वातावरण के लिए, उपार्जित वस्तुओं के रख-रखाव एवं संरक्षण के लिए उत्तम वास्तु का होना

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