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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 ___ अम्बिका तीर्थकर नेमिनाथ की शासन देवी है।इसका अंकन भी मध्ययुग में हुआ।इसके हाथों में क्रमशः एक बालक, पाश, अंकुश तथा आम की बौर वाली टहनी होती है। यह सिंह पर आरूढ़ रहती हैं।
पद्मावती तीर्थकर पार्श्वनाथ की शासनदेवी के रूप में मान्य है। इसके शीश पर सर्पफणों का छत्र होना इसका मुख्य लक्षण है। इन तीनों देवियों का स्पष्ट व ११वीं सदी का मूर्त शिल्प झालरापाटन (झालावाड़, राजस्थान) के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर मं दर्शित है।
क्षेत्रपाल - जैनधर्म ने क्षेत्रपाल की गणना भैरव के समान योगिनियों के साथ की है।क्षेत्रपाल की मूर्ति लक्षणों में उनकी भयंकर मुखाकृति,श्यामवर्ण, बिखरे केश,पैरों में खड़ाऊ, हाथों में मुगदर, डमरू तथा अंकुश प्रमुख होते हैं। मथुरा संग्रहालय में जैन क्षेत्रपाल की एक प्राचीन मूर्ति में उनके दाहिने हाथ में दण्ड है तथा उन्होंने अपने बायें हाथ में श्वान (कुत्ते) की रस्सी को पकड़ रखा है। उत्तरप्रदेश के देवगढ़ तथा मध्यप्रदेश के खजुराहो में भी ११वीं - १२वीं
सदी की इस प्रकार की मूर्तियाँ मिलती हैं। __ आदिमिथुन- सृष्टि के मूल कारण आदिमिथुन का अंकन जैन शिल्पकला में विशेष स्थान रखता है। इसे जुगलिया (युगल मिथुन) भी कहा गया।इस शिल्प में इन्हें विशाल वृक्ष के नीचे बैठा दर्शाया जाता है। चरण चौकी पर बालकों का अंकन तथा वृक्ष के ऊपर जिनबिम्ब बना होता है।ए.एल.श्रीवास्तव के अनुसार लखनऊ संगहालय में इस आशय का एक अंकन फलक पर दर्शित है। सूत्रों के अनुसार उत्तरप्रदेश के सुल्तानुपर में वहाँ के राज्य पुरातत्व संगठन में कूड नामक स्थन से ११वीं सदी का एक ऐसी ही सुन्दर जुगलिया (आदि मिथुन) फलक खोजा है।
यदि जैन और बौद्ध मूर्ताकन में भेद किये जाये तो अध्ययन करने तथा धमों की मूर्तियाँ देखने पर निम्न बिन्दु समक्ष में आते हैं। जैन तीर्थकरों की मूर्तियां निर्वस्त्र (दिगम्बर) होती है जबकि बद्ध की मूर्तियों में उनके बायें या फिर दोनों कंधों से संधाटि वस्त्र नीचे तक लटकता है।बुद्ध की मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवस्त का अंकन नहीं होता जबकि तीर्थकरों की मूर्तियों पर श्रीवत्स का लक्षण होता