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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013
उसकी ये सब अवस्थाएं सत्यार्थ है, इनका अभाव नहीं है, तथापि वे अवस्थाएं कर्म निमित्तविकारी पर्यायें हैं अतः जीव के स्वभाव रूप नहीं है। जब जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित होगा, तब वह शुद्ध परिणमन स्वरूप कहलायेगा।
हाँ, निश्चयनय का अवलम्बन लेना उत्तम है जैसे बादाम का हलुआ उत्तम है किन्तु जिसे मोतीझरा (ज्वर) हुआ हो और उससे उसकी लीवर बिगड़ गया हो, उसे कुशल वैद्य मूंग की दाल का पानी ही पीने को कहेगा बादाम का हलुआ नहीं। उसी प्रकार सामान्य अनगार मुनि स्थविरकलपी मुनि तक पुरुष इस ज्वर के रोगी के समान है, उनके लिए पथ्य रूप में अध्यात्म भावना का चिंतन ही उपयोगी है बल्कि ज्वरनाशक जिनभक्ति गुरु उपासना ही औषधि है। पश्चात् जिनकलपी मुनि होने पर उत्तम संहनन की प्राप्ति होने पर निर्विकल्प ध्यान रूप शुक्लध्यान में स्थिर होने की सामर्थ्य आ जाने से शुद्धनय का आश्रय लेकर वीतराग सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं।
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इस प्रकार सम्यक्त्व के स्वरूप का आश्रय लेकर आचार्यों ने व्यवहार को अभूतार्थ और भूतार्थ लेकर आचार्यों ने व्यवहार को अभूतार्थ और भूतार्थं सिद्ध किया तो निश्चय को भूतार्थ और अभूतार्थ बताया केवल अपेक्षा के आश्रय से ही यह भूतार्थ और अभूतार्थ दृष्टि का परिज्ञान हो सकता है।
संदर्भ :
१. समयसार गाथा - ११
२. समयसार - आर्यिका ज्ञानमती माताजी, प्रथम भाग, पृष्ठ-५७
३. वही
४. समयदेशना, पृष्ठ- १६२, प्रथम भाग
५. तत्त्वार्थसूत्र ५/३२
६. अध्यात्म अमृत कलश ४०
७. समयदेशना प्रथम भाग, पृष्ठ- १६४
८. समयसार टीका - ब्र. शीतलप्रसाद, पृ. १२
९. समपदेशना, पृष्ठ- २०२
- अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दि. जैन कॉलिज, बड़ौत
जिला बागपत (उत्तरप्रदेश) २५०६११