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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
अर्थात् जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा है। आगे कहा है
जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मित्ती प्रभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे॥२५३॥ अर्थात् जिससे जीव राग विमुख से होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है ओर जिससे मैत्रीभाव प्रभावित होता (बढ़ता) है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। इसीलिए आचार्यदेव कहते हैं
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।
एदेण होहि तित्तो होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥२५९॥ अर्थात् इसीलिए हे भव्यजीव! तू इसी ज्ञान में ही सदा लीन रह। इसी में सदा संतुष्ट रहा। इसी से तृप्त हो। इसीसे तुझे उत्तमसुख (परमसुख) प्राप्त होगा। क्योंकि सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधना विहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते हैं।२५९॥ जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान निधि का उपभोग परद्रव्यों से विलग होकर अपने में ही करता है | गाथा २६१।। इसीलिए ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयों और क्रोध, मान, माया एवं लोभ-इन कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिए। जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वक रोका जाता है। समणसुत्तं में ज्ञानवान् होने की सार्थकता अहिंसा में प्रतिपादित करते हुए कहा है
एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ कंचण।
अहिंसा समयं चेव, एतावंते वियाणिया॥१४७॥ अर्थात् ज्ञानी होने का सार यही है कि वह ज्ञानी किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। इतना जानना ही पर्याप्त है कि अहिंसामूलक समता ही धर्म है अथवा यही अहिंसा का विज्ञान है। इस संबन्ध में समणसुत्तं में आगे बताया कि चूंकि ज्ञानी कर्मक्षय के लिए उद्यत हुआ है, हिंसा के लिए नहीं। जो निश्चलभाव से अहिंसा के लिए प्रयत्नशील रहता है, वह अप्रमत्त मुनि अहिंसक होता है।।१५६७॥
वस्तुतः शास्त्रों का अध्ययन करके मोक्षमार्ग का ज्ञान हो जाने पर भी सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे किसी गन्तव्य तक पहुँचने के मार्ग का ज्ञान होने पर भी समुचित प्रयत्न न करने से कोई भी जीव अपने गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु की प्रेरणा के अभाव में जलयान (जहाज) इच्छित स्थान तक नहीं पहुंच सकता।।२६५। इसी तरह चारित्रशून्य पुरुष का विपुल शास्त्रों का अध्ययन भी व्यर्थ ही है। जैसे कि अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है॥२६६॥ अतः सम्यग्ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा रागद्वेष के पूर्णक्षय से जीव एकान्त सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है।।२८९।। अतः जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञायक भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है।॥२५५।। इसीलिए कहा है
“जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ॥२५८॥