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किरण ८]
वादीभमिहमूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि
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स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । मणिके अन्तमे वे अलगसे दिये गये हैं और श्रीकुप्पूगद्यचिन्तामणिलोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥ स्वामी शास्त्रीने फुटनोटमे उक्त प्रकारकी सूचना की इनमें पहला पदा गद्यचिन्तामणिकी प्रारम्भिक है। दूसर. प्रथम श्लोकका पहला पाद और दूसरे पीठिकाका छठा पद्य है और जो स्वयं प्रन्थकारका श्लोकका दूसरा पाढ. पहले श्लोतका दूसरा पाद और रचा हुश्रा है। इस पद्यमें कहा गया है कि वे प्रसिद्ध दूसरे श्लोकका तीसरा पाद. तथा पहले श्लोकका तीसरा पुष्पसेन मुनीन्द्र दिव्य मनु-पूज्य गुरु-मेरे हृदयमें पाद और दूसरे श्लोकका पहला पाद परस्पर अभिन्न सदा श्रासन जमाये रहें वर्तमान रहे जिनके प्रभावसे हैं- पुनरुक्त हैं-उनसे कोई विशेषता जाहिर नहीं होनी मुझ जैसा निपट मूर्ख साधारण आदमी भी वादीभ- और इस लिय ये दोनों शिथिल पद्य वादीभसिंह जैसे मिह-मुनिश्रेष्ठ' अथवा वादीभसिहमूरि बन गया ।' उत्कृष्ट कविकी रचना ज्ञात नहीं होते। तीसरे वादीभअतः यह तो सर्वथा असंदिग्ध है कि वादीभमिहसूरि- मिहमूरिकी प्रशस्ति दनेकी प्रकृति और परिणति भी के गुरु पुष्पमेन मुनि थे-उन्होंने उन्हे मूर्खसे विद्वान् प्रतीत नहीं होती। उनकी क्षत्रचूडामणिमे भी वह नहीं
और साधारणजनसे मुनिश्रेष्ठ बनाया था और इम है और म्याद्वामिद्धि अपूर्ण है. जिससे उसके बारेमें लिये वे वादीभमिहक दीक्षा और विद्या दोनोंके कुछ कहा नहीं जा सकता। अतः उपयुक्त दानो पद्य गुरु थे।
हमे अन्यद्वारा रचित प्रक्षित जान पड़ते हैं और इस अन्तिम दोनो पद्य, जिनमे श्रोडयदेवका उल्लेख लिय आडयदेव वादीभमिहका जन्म-नाम अथवा है. मुझे वादीभमिहके स्वयंक ग्चे नहीं मालूम हात, वास्तव नाम था. यह बिना निर्बाध प्रमाणाके नहीं कांकि प्रथम तो जिम प्रशस्निकै रुपमे व पाय जाते है. कहा जा सकता। हॉ. वादीभसिहका जन्मनाम व वह प्रशस्ति गदाचिन्तामणिकी सभी प्रतियोम उप- अमली नाम काई रहा जरूर होगा। पर वह क्या लब्ध नहीं है सिर्फ नारकी दो प्रतियोमेसे एक ही होगा. इसके साधनका काई दूसरा पुष्ट प्रमाण ढूँढना प्रतिम वे मिलते है। इस लिय मुद्रित गद्यचिन्ता- चाहिए। १५० के० भुजबलीजी शास्त्रीने जो यह लिग्वा है कि
उपसंहार 'पुग्पसेन वाटीमिहके विद्यागुरु नहीं थे, किन्तु दीक्षागुरु । संक्षेपतः 'म्याद्वामिद्धि' जैनदर्शनकी एक प्रौढ अन्यथा इनकी कोई कृति मिलती और माहित्य-समारमें और अपूर्व अभिनव रचना है। जिन कुछ कृतियोसे इनकी भी ख्याति होती । मगर साहित्य-ससारमे ही नहीं जैनदर्शनका वाङ्मयाकाश देदीप्यमान है और मस्तक यो भी वादीमिहकी जितनी ख्याति हुई है, उतनी इनके उन्नत है उन्हीमें यह कृति भी परिगणनीय है। यह गुरु पुषसेनकी नहीं हुई अनुमित होती है।' (भा. भा. ६, अभीतक अप्रकाशित है और इसी लिये अनेक विद्वान किरण २, पृ.८४)। वह ठीक नहीं जान पडता; क्योंकि इससे अपरिचित हैं। वैसी व्याप्ति नहीं है । रविभद्र-शिष्य अनन्तवीर्य, वर्धमान. हम उम दिनकी प्रतीक्षामें हैं जब वादीभसिंहकी मुनि-शिष्य अभिनव धर्मभपण और मतिमागर-शिष्य यह अमर कृनि प्रकाशित होकर विद्वानोमे अद्वितीय वादिराजकी माहित्य-ससारमै कृतियाँ तथा ख्याति दोनों श्रादरका प्राप्त करेंगी और जैनदर्शनकी गौरवमय उपलब्ध हैं पर उनके इन गुरुओंकी न कोई साहित्य-संसार. प्रतिष्ठाको बढ़ावंगी । क्या कोई महान साहित्य-प्रेमी में कृतियाँ उपलब्ध हैं और न ख्याति । वर्तमानमे भी ऐमा इसे प्रकाशित कर महत श्रयका भागी बनेगा और देखा जाता है जिसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये ग्रन्थ-ग्रन्थकारकी तरह अपनी उज्ज्वल कीनिको जा सकते हैं।
अमर बना आयगा?