Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 537
________________ ४८२ L वर्ष ह भाषाओं में साहित्यिक रचना करनेमें जो अपनेको अपमानित समझते थे वे पूँजीपति या एक वर्गविशेषके ही कलाकार रह गए हैं। जबकि जैनी जनताके पथ-प्रदर्शक के रूपमें रहे हैं। भाषाविषयक जैनोंके औदार्यपूर्ण आदर्शको श्राजके साहित्यिक यदि मान लें और राष्ट्र भाषाकी समस्या जनतापर छोड़ दें तो मार्ग बहुत सुगम हो जायेगा। यदि हमारे देशी शब्दोंसे ही समुचितरूपसे भावोका व्यक्तीकरण हो जाता है तब यह कोई आवश्यक नहीं है कि विदेशी शब्दों को चुन-चुनकर राष्ट्र-भाषामे ठूसें । जैन दृष्टिकोण राष्ट्र-भाषापर इतना अवश्य कहेगा कि हिन्दी उस राष्ट्रकी भाषा होने जारही है, जिसकी संस्कृतिमें विभिन्न सस्कृतियों और भाषाओं का समन्वयात्मक प्रयास वर्षोंसे चला आ रहा है। कई जातियोका यह महादेश है । उसपर यह सिद्धान्त कैसे लादा जा सकता है कि राष्ट्र-भाषामे अमुक भाषाके शब्द अधिक रहें | वैयक्तिकरूपसे हम भले ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दीका व्यवहार करें । परन्तु भाषाका प्रश्न व्यष्टिसे न होकर समष्टिसे है । भाषाका प्रवाह शताब्दियोंसे जिस रूपसे चला आ रहा था उसीको कुछ परिवर्तितरूपमें क्यों नहीं बहने दिया जाता ? साहित्यिक भले ही कठिनतर शब्दोका प्रयोग करें, परन्तु अशिक्षित या अल्पशिक्षा प्राप्त मानवोंसे वे ऐसी आशा क्यो कर रहे हैं ? राष्ट्र-भाषा न बनारसी हिन्दी हो सकती है न लाहोरी उर्दू ही । किसी भी प्रान्तकी शब्दावलियोंसे प्रचलित शब्दोको यदि हम अपनी वर्तमान हिन्दीमे पचा लेते है तो बुरा ही क्या है ? क्योकि हिन्दी जीवित भाषा है मृत नहीं। जबतक जीवन है तबतक परिवर्तन होते ही रहेंगे। परिवतनशीलता के सिद्धान्नसे जितनी भी बचानेकी चेष्टा की जाएगी उतनी ही हमें हानि उठानी पड़ेगी । अतः संक्षिप्तमें जैन दृष्टिकोणका यही सारांश है कि राष्ट्र-भाषा हिन्दी सरलसुबोध होनी चाहिए। साथ ही साथ इस बातका ध्यान रक्खा जाय कि इसमें जहाँतक हो सके उन्हीं भाषाओंके शब्दोको बाहुल्यता रहे जिनमे आर्य संस्कृतिका समुचित व्यक्तीकरण सरलता पूर्वक हो सके। यह कोरा आदर्श ही नहीं है, अपितु शताब्दियों तक अनुभवकी वस्तु रहा है । डालमियानगर, ता० २१-१-४६ ई० मुनिका तिसागर २- अनेकान्तकी वर्ष - समाप्ति और अगला वर्ष 1 इस संयुक्त किरण (११, १२ ) के साथ अनेकान्तका नवमा वर्ष समाप्त हो रहा है। इस वर्ष में अनेकान्तने अपने पाठकोकी कितनी और क्या कुछ सेवा की उसे यहाँ बतलाने की जरूरत नहीं—वह उसके गुणग्राही पाठकोपर प्रकट है। हॉ. इतना जरूर कहना होगा कि इस वर्ष यदि कोई विशेष सेवाकार्य हो सका है तो उसका श्रेय सहयोगी सम्पादको और खासकर भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय मन्त्री भारतीयज्ञानपीठकाशी' को प्राप्त है— उन्हीकी सुव्यवस्थाका वह फल है, और जो कुछ त्रुटि रही है वह सब मेरी है— मेरी अयोग्यताको ही उसका एकमात्र जिम्मेदार समझना चाहिये । मै यहॉपर जो कुछ बतलाना चाहता हूँ वह प्रायः इतना ही है कि अनेकान्त के आठवे व की समाप्तिपर, जिसका कार्यकाल १२की जगह २४ महीने का होगया था, मेरे सामने पत्रको बन्द करनेकी समस्या उपस्थित हो रही थी; क्योंकि प्रेसोंके आश्वासन - भङ्ग और गैजिम्मेदाराना रवैये आदिके कारण मैं बहुत त आगया था, मेरा दिल टूट गया था और मैं प्रेसको समुचित व्यवस्था न होने तक पत्रको बन्द करना ही चाहता था कि प० अजितकुमारजी शास्त्रीने, जो अपना अकलङ्क प्रेस' मुलतानसे सहारनपुर ले आए थे, मुझे वैसा करनेसे रोका और पूरी दृढ़ताके साथ अनेकान्तको अपने प्रेसमे बराबर समयपर छापकर देनेका वचन तथा आश्वासन दिया । तदनुसार ही अनेकान्तको अगले वर्ष निकालनेका संकल्प किया गया और उसकी सूचना 'सम्पादकीय

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