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किरण १० ]
भारतीय इतिहासमें अहिंसा
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या बलिद्वारा नहीं, अपितु ध्यान, धारणा एवं समाधि- ही वैष्णव भी करते हैं। इसके पीछे उनकी दार्शनिक को अपनी साधनामे जगह दी ! शङ्करके वेदान्तमें विचारधारा अवश्य कुछ भिन्न है ? 'ईश्वर'का चाहे जो रूप हो परन्तु यह स्पष्ट है कि अहिंसाके विषयमे जैनधर्मका दृष्टिकोण वस्तुतः उसमे हिंसाका लेशमात्र भी स्थान नहीं है ? इसी मौलिक है. यह मौलिकता इसमें है कि जैनविचारकोंने प्रकार वानप्रस्थ और सन्यास आश्रममे भी साधकोकी अहिसाकी व्याख्याका विचारविन्दु आत्माको माना जो चर्या गई है उसमें अपरिग्रह और अहिसा- है। इसे दूसरे शब्दोमें आध्यात्मिक भी कहा जा का सूक्ष्म विचार है ? श्रोपनियुक्ति'कारके अहिंसाका सकता है; 'अहिसा' या हिंसा-पहले स्व' में होती लक्षण और भारतीय साधनामें अहिसाका प्रवेश. है। बाहर तो उसकी प्रतिक्रिया ही देखनेमें आती है। एकाएक नही हो गया. वह सदियोकी चिन्तना और अहिंसाका विचार करते हुए न्हिोंने चार बातोंका. साधनाका परिणाम है । विभिन्न धर्मोके शास्त्रोका विचार किया है। हिस्य, हिंसक हिंसा और हिंसाका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट आभास हो जायगा कि फल । सूक्ष्मदृष्टिसे विचारनेपर यह स्वतः अनुभवमें किस प्रकार भारतीय विचारक एक दूसरसे प्रभावित पाता है कि व्यक्ति कपाय करके पहले स्वयं अपने होत रहे ? साम्प्रदायिकता भारतमें ७वी ८वी सदीके भावोंका हनन करता है इस लिए वह स्वयं हिंस्र बाद आई । इसके पहले खुलकर विचारोका आदान- और हिंसक है। यह बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है ? प्रदान होता था।
वास्तवमें देखा जाय तो श्रात्मा न तो हिंस्य है और न __'वेदान्त' की पृष्ठभूमि भागवतधर्म और बौद्ध- हिसक । गीताकारने कहा है:दर्शनके कुछ विचार है ' शुङ्गकालमे भागवत-धर्मको ‘य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । जन्म, उस विचारधाराने दिया था जो वेदयुगसे ही उभौ तौ न विजानीतौ नाऽयं हन्ति न हन्यते ॥' हिसाके विरोधमे उठी थी। चिरकालके संघर्पके बाद ऐसी स्थितिमें हिंसा और अहिंसाका प्रश्न ही उम समय इस विचारधाराकी इतनी प्रबलता थी- नहीं उठता? यह विवेचन वस्तु-स्वभावको देखनेकी कि हिसा पूजा विधानके प्रति जनता घृणा करने लगी दिखानेकी दृष्टिसे है। यदि व्यवहार-जगतमे उसे थी। इलिये भागवतधम और उसके उत्तरकालीनरुप लगाया जाय तो हमारी सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न वैष्णवधर्ममें अहिंसा' को प्रधान स्थान दिया गया ? हो जाय ? इसलिए 'अहिंसा का व्यवहारिक पक्ष गुप्तकालमे पुनः हिन्दुधर्मका उद्धार हुआ. परन्तु भी है। प्रकृत विश्वमे 'सुखदुख' भय और आशा इतिहासकी धारा सदैव आगे बढ़ती है. उसे पीछे नही का अनुभव सभीको होता है। प्रत्येक प्राणीमें जीनेका ढकेला जा मकता' यह कहा जा चुका है कि श्राोंने मोह है. चाहे वह कैसी परिस्थितिमें क्यों न हो; अतः धार्मिक उपासना प्रकृतिसे ग्रहण की थी। उन्होंने प्रकृति यथाशक्ति उनमें प्राणोकी विराधनासे बचना ही मे दो तत्त्व देखे, भद्र और भयङ्कर । इन्हींके आधार- व्यवहारिक अहिंसा है. जो साधक श्रालस्य रहित पर शिव और रुद्र इन दो शक्तियांकी कल्पना की गई; होकर. अपने लौकिक जीवनका निर्वाह करता हैऔर उसीके अनुरूप उसकी उपासना प्रचलित हुई। वह अहिंसक है पर और अध्यात्मिक साधनामें भागवद्धर्ममं उसे ब्रह्म' कहा गया और उसके विष्णु लगा हुआ प्रमादी मनुष्य हिंसक है ? इस तरह आदि अवतार स्वीकार किए गए-पर इन अवतारों- अहिंसाका सारा तत्त्वज्ञान प्रात्माकी जागरूकतापर की उपासनापद्धति पूर्ण अहिंमक रही ? प्राचार्य ही निर्भर रहता है ? शङ्करने सगुणकी जगह ब्रह्मको निर्गुण माना । परन्तु 'अहिंसा' अनुभूतिगम्य है ? वह तर्क सिद्ध नहीं अहिंमा वहाँ भी आवश्यक मानी गई। अहिमाका है? इमलिये अहिंसाका जितना भी नत्त्वज्ञान है. व्यवहार में जितना सूक्ष्मपालन जैन करते हैं-उतना वह 'आत्मानुभूति' पर अवलम्बित है ? मनुष्यने