Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 442
________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [ ३९५ सो मुयवि सयंभु अण्णु कवणु । मगध मण्डलमें वर्धमान प्राम था, जहाँ वेदघोष सो वेय-गव्वु जइ नउ करइ । करनेवाले, यज्ञमें पशुओंकी बलि देनेवाले, सोमपान तहो कज्जे पवणु तिहुयणधरइ । करनेवाले, परस्पर कटुवचन बोलनेवाले अनेक ब्राह्मण रहते थे । उस प्राममें अत्यन्त गुणवान महकइ वि निबद्धउ न कव्वभेउ । ब्राह्मण-दम्पति श्रुतकण्ठ-सोमशर्मा. रहते थे। उनके रामायणम्मि पर सुणिउ सेउ । १-२-३ दो पुत्र भवदत्त और भवदेव थे। जब उन दोनोंकी कृतिके प्रारम्भमें इस प्रकारके उल्लेख बिना प्रयो- आयु क्रमशः १८. १० वर्ष थी, अतकण्ठ चिरजन्मोंमें जनके नहीं हो सकते हैं। प्रस्तुत कृति 'कथा' है अर्जित पाप कर्मोंके फलस्वरूप कुष्ठ रोगसे पीड़ित अथवा शृङ्गार-वीररस प्रधान महाकाव्य इसकी हुआ और जीवनसे निराश होकर चिता बनाकर परीक्षा करनेके पूर्व कृतिकी कथावस्तु संक्षेपमें देखना अग्निमें जल गया। प्रियविरहसे सोमशर्मा भी अग्निमें आवश्यक है। में जल मरी। शोक संतप्त दोनों भाइयोंको स्वजनोंने मङ्गलाचरण तथा कथानिर्दशके अनन्तर कविने शान्त किया। उन्होंने अपने माता-पिताकेसंस्कार किये। सजन-दुर्जनों, पूर्वके कवियों आदिका स्मरण किया है. भवदत्तका मन संसारमें नहीं रमता था अतः वह और नम्रतापूर्वक काव्य रचनामें अपनी असमर्थता दीक्षा लेकर शुद्ध चरित्र दिगम्बर होगयाप्रकट की है। फिर कविने अपना और अपने सहायकोका उल्लेख किया है। इस छोटीसी प्रस्तावनाके दसणु स लहंतउ विसयचयंतउ सुद्धचरित्त दियबरु । अनन्तर कविने मगधदेश, और उसमें स्थित राज- गुरु वयण सवरण रइ दिढमइ विहरह कम्मासयक्यसंवरु ।। ९ -७ ॥ गृहनगर उसके निवासियोंके सुन्दर काव्यशैलीमें उवयार बुद्धि समणीय परहो, तो हुय भवयत्त दियंबरहो । वर्णन उपस्थित किये हैं। वहाँके श्रेणिक राजा तथा उनकी रानियोंका वर्णन किया है। नगरके समीपस्थ उपवनमें भगवान वद्ध मानके समवसरण रचे जानेका इस प्रकार बारह वर्षतक तपस्या करनेके पश्चात् समाचार पाकर पुरजनों सहित मगधेश्वर इन्द्र द्वारा भवदत्त एक बार संघके साथ अपने ग्रामके समीप निर्मित समवसरण-मण्डपमें पहुँचकर जिन भगवान- पहुँचा । संघकी आज्ञासे वह भवदेवको संघमें दीक्षित की स्तुति करके बैठते हैं। (सन्धि १) करनेके लिये वर्धमान प्राममें गया । इस समय प्रणाम करके विनय भावसे श्रेणिकराज जिनवर- भवदेवका दुर्मर्षण और नागदेवीकी पुत्री मागवसूसे से जीवतत्त्वके सम्बन्धमें जिज्ञासा करता है। गणधर परिणय होरहा था । भाईके आगमनका समाचार राजासे जीवके सम्बन्धमें व्याख्या कर रहे थे उसी सुनकर वह उससे मिलने आया और स्नेहपूर्ण मिलन समय आकाश मार्गसे तेजपुञ्ज विद्युन्माली भासुर के पश्चात् उसे भोजनके लिये घरमें लेजाना चाहता आया। और विमानसे उतरकर जिनदेवको प्रणाम था। भवदेवको इसके अनन्तर भवदत्त अपने संघमें करके बैठ गया। तेजवानदेवके सम्बन्धमें राजाके लेगया और वहाँ मुनिवरने उससे तपश्चर्याव्रत लेनेको पूछनेपर गणधरने बताया कि वह (विद्युन्माली) कहा । भवदेवको इधर शेष विवाह-कार्य सम्पन्न करके अन्तिम केवली होगा। अभी उसकी आयुके केवल विषय-सुखोंका आकर्षण था, किन्तु भाईकी इच्छाका सात दिन है किन्तु उसे अभी तेजने नही छोड़ा। अपमान करनेका साहस उसे नहीं हुआ और प्रव्रज्या राजाने उस देवके ऐश्वर्यसे प्रभावित होकर उसके पूर्व (दीक्षा) लेकर वह देश-विदेशोंमें संघके साथ बारह जन्मोंकी कथा सुननेकी इच्छा प्रकट की। जिनदेवने वर्षतक भ्रमता रहा । एक दिन अपने मामके पाससे उसकी कथाको इस प्रकार प्रारम्भ किया निकला । भवदेव घर जाकर विषयोंके सुखोंका

Loading...

Page Navigation
1 ... 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548