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शारीरिक शक्तिकी परिभाषा और उसके विकासके धार्मिक नियम
शारीरिक शक्तिमें मानवका स्थूल शरीर, उसकी इन्द्रियाँ-हाथ, पैर, नाक, कान प्रभृति शामिल हैं। इस शक्तिको विकसित करनेका काम भी धर्मका है, अर्थात् समाजके वे नियम जिनके द्वारा इस शक्तिका पूर्ण विकास हो सके, इसके विकासमें किसी प्रकारकी बाधा उत्पन्न न हो। मनुष्यको प्रारम्भसे ही शारीरिक आवश्यकताओकी पूर्तिके लिये भोजन, वस्त्र की आवश्यकता होती है, उसे रहनेके लिये स्थान और आने-जानेके लिये सवारी भी चाहिये। इन आवश्यकताकी वस्तुओंके मिलनेसे उसका शरीर पुष्ट होता है. इन्द्रियोंमे पुष्टि श्राती है तथा समस्त शरीरके अङ्गोपॉगरूप शारीरिक शक्तिका विकास होता है। ममाजमें आवश्यकता की वस्तुएँ थोड़ी हैं और उनके लेने वाले अत्यधिक हैं। इसलिये समाजके सभी सदस्योको वस्तुओके वितरणके लिय राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक नियमोका निर्माण किया जाता है, जो कि शारीरिक शक्तिके विकसित करनेके लिय धार्मिक नियम है। किन्तु इतना स्मरण रखना होगा कि जब इस शक्तिका चरम विकास हो जाता है, उस समय य क्षुद्र नियम लागू नहीं होते है। इसीलिये इन नियमोको स्थिर नहीं माना जा सकता. किन्तु एक समयम निर्मित नियम दूसरे समयके लिये अनुपयोगी भी साबित हो सकते है। अतएव आजकी परिस्थितियो के प्रकाशमे शक्तित्रयके विकासका देखना आवश्यक है। शारीरिक शक्तिके साधन अर्थकी व्यापकता और सिक्केका प्रचलन
शरीरके विकासके लिये अर्थकी कितनी आवश्यकता है. यह किमीसे छुपा नहीं । भोजन, वस्त्र, सवारी प्रभृति ममस्त पदार्थ अर्थके अन्तर्गत है। केवल रुपयका नाम अर्थ नहीं है। आजसे सहस्रो वर्ष पूर्व एक ऐमा भी युग था, जिसमें मिक्का नही था. कंवल वस्तुओ के परस्पर विनिमयसे काय चलत थे। लेकिन जब इस विनिमयकी क्रियासे मानवका शारीरिक
आवश्यकताकी पूर्तिमे बाधा आने लगी तो अर्थके प्रतीक मिक्केका जन्म हुआ । स्पष्ट करनेके लिय यो कहा जा सकता है कि कुछ ऐसे व्यक्ति है, जिनमेमे एकक पास गेहूँ. चना आदि अन्न है, दुसरा एक ऐसा आदमी है जिमके पाम मवेशी हैं, तीसग एक सा व्यक्ति है जिमके पास वस्त्र है। पहले व्यक्तिका फली की आवश्यकता है, दृमरका अनाज की
आवश्यकता और तीसरको तरकारियां की। ये तीनो हा व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता की वस्तुकी प्राप्तिके लिये छटपटा रहे हैं। पहला अनाज वाला व्यक्ति फलोकी दुकानपर गया और फल वालसे अनाजके बदलेमे फल देनेका कहा, किन्तु फल वालेका अनाज की आवश्यकता नहीं। अतः अनाजसे फलोका विनिमय नहीं करना चाहता अथवा अधिक अनाजके बदलेमे कम फल देना चाहता है, इससे पहले व्यक्तिके सामने विकट समस्या है।
दुमर व्यक्तिको अनाज चाहिये. अतः वह मवेशी लेकर गया और बदलेमे अनाज मँगाने लगा. किन्तु पहले व्यक्तिको मवेशी की जरूरत नहीं, उसे तो फल चाहियें। इसलिये उसने मवेशीके बदलेमे अनाज देनेसे इन्कार कर दिया अथवा एक मवेशी लेकर थाडासा अनाज देना चाहता है. जिससे दूसरा व्यक्ति अपना आवश्यकता पूर्ति किये बिना ही लौट आता है। यही अवस्था तीसरे की है. उसे भी अपनी आवश्यकता की पूतिमे बाधा है। यदि ये व्यक्ति और भी कई प्रकारके पदार्थ-नमक, मिर्च, ममाला प्रभृति खरीदना चाहें तो इन्हें ये पदार्थ भी बड़ी कठिनाईसे मिलेगे। समाजकी इम कठिन ममस्याको सुलझानेके लिये धार्मिक नियम सिक्केके प्रचलनके रूपमें आविर्भूत हुआ। समाजकी छीना-झपटीकी समस्या को अर्थके प्रतिनिधि सिक्केने दूरकर मानवको उन्नत बनाने में बड़ा योग दिया है।