Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 534
________________ सम्पादकीय १-राष्ट्र-भाषापर जैन दृष्टिकोण स्वाधीन भारतके सम्मुख आज जितनी भी समस्याएँ समुपस्थित है, उनमें राष्ट्रभाषाकी भी एक ऐसी जटिल समस्या है जिसपर देशकी आम जनता एवं बुद्धिजीवियोंका दृष्टिबिन्दु केन्द्रित है। सभी वर्ग एक स्वरसे स्वीकार करते हैं कि अब हमारी भावी शिक्षा अंग्रेजीके माध्यम द्वारा न होकर हमारी ही राष्ट्र-भाषा द्वारा सम्पन्न हो । राष्ट्र-भाषा कैसी हो, क्या हो. और उसका स्वरूप किस प्रकारका होना चाहिए । यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको लेकर देशमें तहलका-सा मचा हुआ है। जहॉतक राष्ट्र-भाषाका प्रश्न है वहाँपर जैसा वायु-मण्डल अभी है वह न होना चाहिए था। भिन्न-भिन्न विद्वानो द्वारा राष्ट्र-भाषाके भिन्न-भिन्न स्वरूप जनताके सामने समुपस्थित हैं। यूं तो कई मत राष्ट्र-भापाके सम्बन्धमें प्रतिदिन अभिव्यक्त होते हैं। परन्तु प्रधानतः इन्हीं दो पक्षोंमें वे सभी अन्तरमुक्त हो जाते हैं। एक पक्षका कहना है कि राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसमे आर्यभापा संस्कृतके शब्दोकी बाहुल्यता हो। और वह देवनागरी लिपिमे ही लिखी जाय । उपयुक्त पक्षके समर्थकोंका अभिमत है कि हिन्दी की उत्पत्ति ही सस्कृत भापासे हुई है। दूसरा पक्ष कहता है कि राष्ट्र-भापाका स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि जनता सरलतासे उसे बाल और समझ सके। इसमें अरबी, फारसी एवं अन्य प्रान्तीय भाषाओके शब्द भा अमुक संख्यामे रहें. और वह उदू तथा देवनागरी लिपिओमे लिखा जाय । भाषा और संस्कृतिका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। किसी भी देशकी संस्कृति एवं सभ्यताके उन्नतिशील अमरतत्त्वांका संरक्षण उसकी प्रधान भाषा तथा परिपुष्ट माहित्यपर अवलम्बित है। उभय धाराओंका चिर विकाम राष्ट्र-भाषा द्वारा ही सम्भव है। भाषा भावोंको व्यक्त करनेका साधननात्र है। ऐसी स्थितिमे हमारा प्रधान कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम अपनी राष्ट्र-भाषाका स्वरूप समुचित रूपसे निर्धारित कर ले । यूं तो सभी जानते हैं कि भाषा. का निर्माण राष्ट्रके कुछ नेता नहीं करते हैं। वह स्वयं बनती है। कलाकारों द्वारा उसे बल मिलता है। अन्ततः वह स्वयं परिष्कृत हाकर अपना स्थान बना लेती है। परन्तु हमार देशका दुर्भाग्य है कि राजनतिक पुरुप कई भाषाओक शब्दोके सहारे एक नवीनभाषा बलात् जनतापर लाद रह है, जा सर्वथा अप्राकृतिक अवैज्ञानिक एव अमाननीय है। वे लोग एक प्रकारस प्रत्यक विषयपर राय देनेके अभ्यस्त-से हो गए हैं। इसीलिये सांस्कृतिक शुभेच्छुक राष्ट्र-भाषाके सुनिश्चित स्वरूपपर गम्भोरतासे अपना ध्यान आकृष्ट किए हुए है, जिनका अधिकार भी है। जिस व्यक्तिका जिम विषयपर गम्भीर अध्ययन न हो उसे उस विषयपर बोलनेका कुछ अधिकार नहीं रहता। जयपुर कॉग्रेसमे हमारे माननीय नेताओ द्वारा राष्ट्र-भापा पर जो कुछ भी कहा गया है. उमसे सुख नहीं मिलता। देशको सांस्कृतिक दृष्टिसे जीवित रखनेवाले कलाकारांके हृदयापर गहरी चोट लगी है। राष्ट्र-भाषा निर्धारित करनेका कार्य नेतागण अपनी कार्य सूचीसे अलगकर दें तो बहुत अच्छा होगा । क्योकि उन्हें अपनी प्रतिभाको विकसित करनेके लिए पर्याप्त क्षेत्र मिला है। उदाहरणके लिए मान लीजिए (यदि यह है तो सवथा असम्भव) कि कहींकी ईट कहीका रोड़ा बाली कहावतके अनुमार एक

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