Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 523
________________ ४७२ ] भनेकान्त मानवके विकासमें सहयोग देनेवाली राजनीति प्रागैतिहासिक-भोगभूमि-कालमें न कोई राजा था और न कोई प्रजा। सभी आनन्द और प्रेमसे अपना जीवन व्यतीत करते थे। किन्तु उदयकाल-कर्मभूमिके प्रारम्भमें जब स्वार्थीका संघर्ष होने लगा तो राज्यव्यवस्थाकी नीव पड़ी और उत्तरोत्तर इसमें विकास समय और आवश्यकताके अनुसार होता रहा । राज्य-संचालनकी तीन विधियाँ प्रमुख हैराजतन्त्र, अधिनायकतन्त्र और प्रजातन्त्र । तीनों तन्त्रोंकी व्याख्या और आलोचना राजतन्त्रमें शासनकी बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है जो वंशपरम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । अधिनायकतन्त्रमें शासनसूत्र एसे व्यक्तिके हाथमें होता है जो जीवनभरके लिये या किसी निश्चित काल तकके लिये प्रधान शासकके रूपमे चुन लिया जाता है और प्रजातन्त्र-प्रणाली में शासनसूत्र जनताके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियोंके हाथमें होता है। . इन तीनों तन्त्रोंमें गुण-दोष दोनों हैं, फिर भी प्रजातन्त्रप्रणाली नैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकासमें अधिक सहायक है। पर इस प्रणालीमे इस बातपर ध्यान रखना होगा कि निर्वाचन विना किसी पक्षपात और लेन-देनके हो । रुपयोके बलपर मत (वोट) खरीदकर किसी पदके लिये निर्वाचित होना परम अधार्मिकता है। भारतके नवनिर्माणमें प्रजातन्त्र प्रणाली ही उपयोगी हो सकती है। समय और परिस्थितियोके अनुसार यह प्रणाली व्यक्ति और समाजकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोका विकास कर सकती है। प्रेम, संयम और सहनशीलताक। दायित्व मानवमात्रका होता है, इससे कोई भी अपराध नहीं करता। क्योकि जनता अपने द्वारा निर्धारित नियमोकी अवहेलना नहीं कर सकती है। जब प्रत्यक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक नियमांका पालन करेगा तो राजकीय शक्तिका सदुपयोग अन्य विकासके साधनोंमे किया जायगा। अतः यह प्रेमका शासन समाजकी सर्वाङ्गीण उन्नतिके लिये धार्मिक है। समाज और धर्म मानव सामाजिक प्राणी है, यह अकेले रहना पसन्द नहीं करता है, अत: उसे अपने विकासके लिये संगठनकी आवश्यकता होती है। किसी समानताके आधारपर जो संगठन किया जाता है, वही समाज कहलाता है। इस प्रकार जाति, धर्म, जाविका, संस्कृति, प्रान्त, देश प्रभृति विभिन्न बातोके नामपर सङ्गठित व्यक्तियांका समूह विभिन्न समाजामे बटा माना जायगा। अपने समाज-वर्गविशेषको श्रेष्ठ समझकर अन्य वर्गोंसे द्वेष करना, अधार्मिकता है। आज जातिद्वेष, धर्मद्वेष, प्रान्तविद्वेष. भाषाविद्वेष, व्यवसायविद्वप विभिन्न प्रकारके द्वप वर्तमान हैं, जिनके कारण समाजमे अत्यन्त अशान्ति है। राग और द्वेष य दानो ही अधर्म हैं, विशुद्ध प्रेमका व्यापकरूप ही धर्मके अन्तर्गत आता है। अतः अपनेका बड़ा और अन्यको छोटा समझकर घृणा करना अमानवता है। सामाजिक विकासके लिये निम्न धार्मिक नियमोंका पालन करना आवश्यक है १ सहानुभूति, २ अहार और द्वेषका त्याग, ३ 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना, जो व्यवहार अपनेको नही रुचता उसे अन्यके साथ महीं करना, ४ धार्मिक सहिष्णुता.

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